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________________ अलबेली आम्रपाली ११९ मैं तेरी आंखों में उभरते आश्चर्य को समझ रहा हूं। तुझे ऐसा लगता होगा कि कहां आम्रपाली का प्रासाद और कहां जयकीति ! क्या ऐसा है ?" "महाराज ! जब असंभव संभव बनता है तब आश्चर्य होना स्वाभाविक है। आप कुशल तो हैं ?" "हां, अब तुझे यहीं एक परिचारक के रूप में रहना है ।" “यहीं।" "हां, मित्र ! जब तू सारा वृत्तान्त सुनेगा तब तुझे ऐसा प्रतीत होगा कि जो हुमा है वह उत्तम हुआ है।" कहकर बिंबिसार ने मेले से पहाड़ी पर जाने, वराह का वध करने, मूच्छित आम्रपाली का उपचार करने, वीणावादन और गांधर्वविवाह की सारी बात संक्षेप में बताई। यह वृत्तान्त सुनकर प्रसन्न होने के बदले धनंजय गंभीर हो गया। बिबिसार ने कहा-"मित्र ! देवी आम्रपाली केवल रूप की रानी ही नहीं है, वह नारीरत्न है। ऐसे रत्न को पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया। तू इतना गंभीर क्यों हो गया?" "महाराज ! आप तो जानते ही हैं कि वैशाली के लिच्छवी बहुत चतुर और चर-आंख वाले होते हैं।" ___ "धनंजय ! जयकीर्ति का लिच्छवियों के साथ कोई वैर नहीं है। तू भय मत खा। भृत्य को तू राजगृह भेज दे । केवल तुझे ही मेरे व्यक्तिगत परिचारक के . रूप में रहना है।" "जैसी आज्ञा" धनंजय ने कहा। इस घटना के बाद अनेक दिन बीत गये और आश्विन पूर्णिमा का चांद गगन में उदित हुआ। शरद पूर्णिमा के दिन उपवन के एक कुंज में आम्रपाली और बिंबिसार आमोद-प्रमोद करने वाले थे। देवी आम्रपाली ने प्रियतम के साथ उपवन में जाने की तैयारी की । इतने में ही माध्विका ने आकर कहा-“देवि ! उपवन में हजारों लिच्छवी आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" "क्यों?" "आज शरद पूर्णिमा है।'उत्सव की रात हैआज तो आपको ही उन एकत्रित लिच्छवियों का मरेय से आतिथ्य करना होगा।' "यह किसने कहा?" __ "अभी-अभी गणतन्त्र का सचेतक आया था और उसने यह सन्देश दिया "तब तूने इतने विलंब से मुझे यह बात क्यों कही ?" "देवि ! आप स्नानगृह में थीं। मैं स्वयं नीचे सबका स्वागत कर रही थी।"
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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