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________________ अलबेली आम्रपाली ११७ आचार्य अपने आसन से उठकर रोती हुई कादंबिनी के पास आये और उसके मस्तक पर हाथ रखकर बोले - " कादंबिनी ! तेरे ये आंसू मेरे अन्तःकरण को अत्यधिक व्यथित कर रहे हैं पर मैं लाचार हूं । तुझे पुनः विषमुक्त करने की विधि मेरे पास नहीं है । मुझे क्षमा करना।" कादंबिनी ने अपने आंसू पोंछे और कहा - "गुरुदेव ! आपका कोई दोष नहीं है । मेरे कर्मों का ही यह परिणाम है । परन्तु ।” "बोल, मैं तेरी इच्छा पूरी करूंगा ।" "तो फिर आप मुझे यहीं रखें ।" कादंबिनी बोली । " किन्तु तेरे पर एक भारी दायित्व आने वाला है ।" "जब जरूरत पड़ेगी तब मैं उस उत्तरदायित्व को उठा लूंगी। मगध के कल्याण का कोई भी कार्य करने के लिए मैं सदा तत्पर रहूंगी। किन्तु आप मुझे आश्रम में ही रखें।" महादेवी कादंबिनी के करुण वचन को सुनकर बोली - " कादंबिनी ! तू चाहे तो यहीं रह ।" महाराजा ने कहा - " पुत्रि ! तेरा आश्रम में रहना उचित नहीं होगा । मैं वहीं तेरे लिए स्वतंत्र व्यवस्था कर डालूंगा ।” कादंबिनी बोली - "कृपावतार ! आश्रम में रहने का मेरा आग्रह स्व-रक्षण है। मैं अभी कुमारिका हूं। मैं अभी यौवन के प्रथम सोपान पर हूं । मेरा रूप कैसा भी क्यों न हो, मेरा यौवन देखकर पुरुष पागल बनेंगे ही। मेरा संपर्क उनके लिए प्राणघातक होगा । मैं भी अभी तक यौवन की चंचलता पर नियन्त्रण करने में असमर्थ हूं । मैं एक अभिशप्त नारी हूं । चंचलता और मन का वेग आदमी को मूढ़ बना डालता है । आप मुझे यहीं रखें ।" आचार्य बोले - " कादंबिनी ! ठीक है । तू यहीं रह । तेरी सारी जिम्मेवारी मैं लेता हूं । मैं अब तुझे पुनः विषमुक्त करने के विषय में भी सतत चिंतन करता रहूंगा तुझे अब एक बात पर विशेष ध्यान देना होगा।" "क्या गुरुदेव !" "किसी भी स्त्री या पुरुष, बालक या प्राणी के स्पर्श से दूर रहना होगा ।" आचार्य ने गंभीर होकर कहा । "प्राणी के स्पर्श से ।" "हां, पुत्रि ! मैं तुझे प्रत्यक्ष दिखाऊंगा ।" कहकर आचार्य ने शिवकेशी को बुलाया और कहां - " वत्स ! एक शशक ले आ ।” "जी" कहकर वह गया और एक सुन्दर शशक लाकर आचार्य को दे, खंड के बाहर चला गया ।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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