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________________ सारसिका बोली- 'तरंग ! मनुष्य के पास बुद्धिशक्ति है। अतः वह सुखदुःख को पृथक् कर सकता है और इन पक्षियों का ज्ञान सीमित होता है इनकी इच्छाएं भी निश्चित होती हैं, इसलिए देखने वालों को ये सुखी दिखाई देते हैं। अन्यथा इनमें भी वैर, ईर्ष्या, विरह-वेदना का अनुभव होता ही है । ' तरंगलोला कुछ नहीं बोली। उसकी दृष्टि कल्लोल कर रहे कुछेक चक्रवाक युगलों पर टिकी हुई थी। वे युगल सुंदर लग रहे थे। कुछ चक्रवाक सरोवर की नीली दूर्वा पर आराम कर रहे थे और कुछ प्रेमोपचार । चक्रवाकों की परस्पर प्रीति और ममता को देखकर तरंगलोला अपने मन की गहराइयों में उतर गई। आसपास में कौन है ? स्वयं कहां है यह सब वह विस्मृत कर चुकी थी । उसके अन्तर् की गहराई में संचित स्मृतियों के अबोल अनुभव उछल-कूद करने लगे। तरंगलोला को स्थिरभाव से खड़ी देखकर सारसिका चौंकी और फिर पक्षियों के पारस्परिक कल्लोलों को देखने लगी। परन्तु तरंगलोला की आन्तरिक स्थिति भिन्न थी इस जन्म में जिसका अनुभव कभी न किया हो, वैसा अनुभव उसे होने लगा और विचित्र अनुभव स्मृतिपटल पर उभरने लगे। अब जातिस्मृति ज्ञान का अवतरण ऐसे क्षणों में ही होता है तरंगलोला का मन विगत जन्म की स्मृतियों में उलझता गया । पूर्वभव की स्मृति होते ही वह चौंकी और दूसरे ही क्षण वह मूर्च्छित होकर नीचे गिर पड़ी। सारसिका ने उसे संभाला। उसको वहीं भूमि पर सुला दिया । उसे यही प्रतीत हुआ कि जलाशय के कारण ही तरंग की यह दशा हुई है। आस-पास देखा । परन्तु अन्यान्य स्त्रियां दूर थीं साथ में आई हुई परिचारिकाएं भी अलग-अलग पड़ गई थीं क्या किया जाए ? तरंगलोला को मूर्च्छित छोड़कर कैसे जाऊं? सारसिका सरोवर के पास गई और कमलपत्र के एक दोने में पानी लाकर तरंगवती के वदन पर धीरे-धीरे छींटे देने लगी। दोने का पानी खाली होते ही वह दूसरी बार उसे भरकर पुनः छींटे देने लगी। मूर्च्छितावस्था में भी तरंगलोला की आंखों से आंसू बह रहे थे. यह क्या? आंसू कैसे आ रहे हैं? सारसिका पुनः जल के छींटे देने लगी और अपने पल्लू से उसकी आंखें पोंछती रही कुछ समय पश्चात् तरंगलोला ने आंखें खोली। सारसिका ने पूछा- 'सखी! क्या हो गया था ? जलाशय को देखकर चौंक गई थी ?' 'नहीं'' ऐसा कुछ नहीं हुआ।' 'तो फिर क्या हुआ ?' तरंगलोला उठी। सारसिका ने उसे कहा - 'हम कदली मंडप में चलें वहां धूप है' कहकर सारसिका ने अपनी प्रिय सखी को धीरे से खड़ी कर दोनों ७० / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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