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________________ में आज अनेक अपरिचित से व्यक्ति आए हुए थे। रुद्रयश ने मदिरापान कर एक व्यक्ति से पूछा 'आप कहां से आए हैं ? ' 'तुम क्यों पूछ रहे हो ?' 'ऐसे ही पूछ लिया। मैं भी परदेशी हूं।' रुद्रयश ने कहा । 'तुम यहां क्या करते हो ?' 'मुझे यहां आए मात्र तीन दिन हुए हैं आप यहां कब आए हैं?' रहा हूं वह परदेशी रुद्रयश की ओर संदेह की दृष्टि से देखने लगा । सोचा, कहीं यह गुप्तचर तो नहीं है ? नहीं, नहीं, गुप्तचर तो नहीं लगता। यह सोचकर परदेशी ने पूछा - 'तुम क्या जानते हो ?' 'चोरी के अतिरिक्त मैं कोई काम-धंधा नहीं जानता ।' रुद्रयश ने हंसते हुए कहा। मेरे योग्य कार्य की खोज कर 'तो क्या तुम हमारे सरदार के पास चलोगे ? तुमको काम मिल जाएगा और यदि तुम गुप्तचर होगे तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। ' 'मैं आने के लिए तैयार हूं।' रुद्रयश बोला । परदेशी जैसे लगने वाले सातों व्यक्ति रुद्रयश को साथ ले वहां से रवाना हो गए। वे सभी एक वेश्या के घर ठहरे हुए थे। रुद्रयश ने देखा कि वे पन्द्रह आदमी हैं और उनका सरदार अत्यंत क्रूर आकृति वाला है। रुद्रयश को साथ लाने वाले व्यक्तियों ने नमन कर कहा - 'महाराज ! यह एक तरुण कार्य की खोज में यहां आया है और इसे चोरी के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं आता।' 'अच्छा, कहकर सरदार ने रुद्रयश की ओर गौर से देखा, नाम क्या है ?' फिर पूछा- 'तेरा 'रुद्रयश । ' 'जाति क्या है ?' 'ब्राह्मण हूं, परन्तु जाति से च्युत हो चुका हूं।' 'शाबाश! इतने समय में कितनी चोरियां की हैं?' 'छोटी-छोटी चोरियां अनेक की हैं, परन्तु उनसे दारिद्र्य नहीं मिटा । मैं वाराणसी नगरी में रहता था, परंतु अब वहां रह नहीं सकता । ' 'क्यों?' 'तिरस्कार के कारण।' पूर्वभव का अनुराग / ५१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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