SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी आ पहुंचेगा। हमें जो कुछ करना है, उसे शीघ्रता से ही कर देना है पांथशाला से कोई बजरे में आए उससे पूर्व ही हमें यहां से नौ दो ग्यारह हो जाना है । रुद्रयश ने कहा । ' और उसी क्षण रुद्रयश सहित तेरह साथी लुकते - छिपते बजरे की ओर अग्रसर हुए। ७. डाकूओं की टोली में अपरिपक्व तेरह साथी लूट के मार्ग पर ! बजरे के रक्षक सैनिक अपने बजरे में शांत बैठे थे। उनमें से एक बाहर के उपवन में खड़ा था" उसकी दृष्टि अचानक नदी के किनारे-किनारे आने वाले युवकों की टोली पर पड़ी। अंधकार के कारण आने वालों की संख्या का अनुमान करना कठिन हो रहा था, किन्तु आने वाले छिपते - छिपते धीरे-धीरे आ रहे हैं, यह उसने अनुमान लगा लिया। उसके मन में संदेह हुआ और उसने भीतर जाकर आराम से बैठे सैनिकों से धीरे से कहा - ' दस-बारह पुरुषों की टोली देवी के बजरे की ओर सावधानीपूर्वक जा रही है। ' 'यह हो ही नहीं सकता ।' कहकर नायक खड़ा हुआ और बजरे के वातायन से देखने लगा उसने देखा लुकते-छिपते कितने व्यक्ति देवी के बजरे की ओर बढ़ रहे हैं और गंगा में उतर रहे हैं " उनके हाथों में शस्त्र भी हैं। वह तत्काल बोला- 'सभी तत्काल तैयार हो जाएं अवश्य ही कोई दुष्ट लोग लगते हैं। यदि देवी के आदमी हैं तो वे लुकते - छिपते क्यों आएं ?' सभी सैनिकों ने तीर-धनुष धारण किए और नायक के साथ बाहर आए। नर्तकी के बजरे तक रुद्रयश पहुंच चुका था धीरे से वह ऊपर बजरे में बैठा एक नाविक बोला- 'भाई! तुम कौन हो ? ' इतने में ही पांच- चार साथी भी ऊपर चढ़ गए। उसी समय नायक ने ललकारते हुए पूछा-'कौन हो ? ' उसी समय बजरे का रखवारा एक वृद्ध नाविक बजरे के खंड से बाहर निकला और पांच-सात व्यक्तियों को देख शीघ्र ही अंदर जाकर खंड का द्वार बंद कर दिया। चढ़ा रुद्रयश ने साथियों से कहा- 'साथियों तोड़ दो दरवाजा ! ' परंतु उसी क्षण नायक ने कहा- 'जैसे हो वैसे ही खड़े रह जाओ" अन्यथा एक-एक बींधे जाओगे ?' रुद्रयश चौंका ! उसके साथी भी चौंके। किन्तु रुद्रयश ने लंबा विचार न कर दरवाजे पर जोर से एक लात मारी दूसरी मारी। पूर्वभव का अनुराग / ४७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy