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________________ तैयारी करने लगा। उस समय माधव ने आकर कहा-'पिताजी आपको याद कर रहे हैं।' 'अभी आ रहा हं' कहकर कंधे पर कौशेय की शाल रखकर वह पिताजी के खंड में गया। महापंडित ने अपने पुत्र को सामने बैठने का संकेत किया। रुद्रयश पिता को नमस्कार कर एक आसन पर बैठ गया। उसका मन इसलिए बेचैन हो रहा था कि उसके साथी इस समय उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। आज वे सभी मिलकर एक बड़ी डकैती करने की योजना बनाने वाले थे। पन्द्रह वर्ष पूरे होने वाले थे। रुद्रयश के अभी मूंछे भी नहीं आई थीं। कच्ची बुद्धि का यह युवक किस मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है। संगत का दोष अवश्यंभावी है। महापंडित बोले-'रुद्रयश! तू बहुत देरी से उठा? अभ्यास को अधूरा छोड़ तूने पाठशाला जाना छोड़ दिया, किन्तु ब्राह्मण के कर्त्तव्य का क्यों त्याग किया?' 'बापू! मैंने कर्त्तव्य का त्याग नहीं किया है। गत रात्रि में पूरी नींद नहीं आई, इसीलिए आज विलंब से उठा। आपकी आज्ञा क्या है?' रुद्रयश ने पूछा। _ 'मैंने सुना है कि तू चोरियां करता है।' रुद्रयश जोर से हंसा और हंसते-हंसते बोला-'ऐसे भयंकर असत्य को आपने कैसे मान लिया? एक समर्थ महापंडित का पुत्र क्या चोरी करेगा? नहीं, पिताजी! मेरे किसी विरोधी ने आपको यह बात कही है।' 'अच्छा, तू जुआ भी खेलता है। क्यों?' । 'जुआ!! मैं कुछ साहसिक वृत्ति वाला युवक हूं। कभी कोई गंगा में डूब रहा हो तो मैं तत्काल उसको बचाने के लिए गंगा में छलांग लगा देता हूं...... इस प्रकार मैं अपने जीवन का जुआ तो अवश्य खेलता हूं...... अन्य जुए की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।' 'क्या यह सब सच कह रहे हो?' 'हां पिताजी! आपके समक्ष मैं कभी असत्य नहीं कहूंगा...। आप सच मानें।' 'बहुत अच्छा ...। कल रात में तू कहां गया था?' 'मैं तो अपने कमरे में सो रहा था।' 'झूठ मत बोल। मैंने कल मध्यरात्रि में तेरे कमरे में तेरी खोज की थी। शय्या खाली पड़ी थी।' बिना किसी हिचक के रुद्रयश ने स्वाभाविक रूप से कहा-'ठीक है। रात्रि में मैं दो बार शौच गया था...... संभव है जब आपने मेरी शय्या देखी तब मैं शौच गया हुआ हूंगा।' पूर्वभव का अनुराग / ४१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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