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________________ कमलपत्रों की रौंदी हुई नई शय्या को मैंने अपनी आंखों से देखा है।' सखी ने कहा। वासरी मौन हो गई। क्या कहे ? किन्तु सभी में वाचाल मानी जाती हुई सखी ने मर्मभरी वाणी में कहा - 'सुदंत तो बेचारा भोला प्राणी है वह तुझे उचक कर क्या ले जाएगा ? यह तो निर्झर के तट पर, चांदनी की चादर ओढ़ कर तरंगित होने की इच्छा वासरी में ही उत्पन्न हुई होगी। हे वासरी ! सच - सच कहना, आज किस ओर जाने वाली हो ?' किन्तु वासरी आगे कुछ भी नहीं बोल सकी। सखी ने कहा- 'बहुत हुशियारी मत दिखा। हमको भी ऐसा अनुभव हो मेरा पति भी एक महीने तक मेरे पीछे-पीछे परछाईं की भांति घूमता प्रतिदिन कुछ न कुछ ले आता और मैं यदि उसके भोलेपन की रहता बात कहूं तो तू चक्कर खाकर नीचे गिर पड़ेगी । ' 'मुझे कुछ भी पता नहीं है चुका है इतने समय तक मौनभाव से बैठी राजी नाम की युवती बोल पड़ी - 'सखि ! तुझे विवाहित हुए एक वर्ष बीत चुका है, फिर भी तेरा पति तेरा पीछा कहां छोड़ रहा है। मुझे प्रतीत होता है, अभी वह मदिरापान कर तेरी ही प्रतीक्षा कर रहा होगा ।' फिर वासरी की ओर उन्मुख होकर बोली- 'वास ! तू हाथीदांत के विषय में कहती थी, क्या हाथीदांत आ गए?' 'नहीं, चार-छह दिन बाद लेने जाएंगे वासरी ने संकोचभाव से कहा। लखी ने तत्काल प्रश्न किया- 'हाथीदांत ! मुखिया चाचा ने तो तुझे हाथीदांत दिए ही थे।' 'तुझे हंसली किसकी मिली थी ?' राजी ने लखी के सामने देखते हुए कहा । लखी तत्काल शरमा गई और अन्य सभी सखियां हंस पड़ीं। मालू ने वासरी का हाथ पकड़ कर कहा- 'अरे! मांग कर भी तूने हाथीदांत ही मांगा ?' वासरी कुछ कहे, उससे पूर्व ही झोंपडी का झांपा उघड़ा " दृष्टि उस ओर गई सभी सखियों की दृष्टि झांपा की ओर उठी वाला सुदंत अंदर प्रविष्ट हुआ। सुदृढ़ और सशक्त दीखने लखी ने सुदंत से से पूछते-पूछते थक गई। बिताने का निश्चय किया है ! वासरी की प्रचंड, कहा - ' - ' भाई ! तुम ठीक अवसर पर आये ! हम तो वासरी यह कुछ बोलती ही नहीं कि आज की रात कहां हम कोई साथ थोड़े ही आ जातीं चिकोटी काटते हुए कहा - 'तेरा पति तुझे पूर्वभव का अनुराग / २१ राजी ने तत्काल लखी के उचककर ले जाना चाहे तो तू जा।'
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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