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________________ देख वे तालाब से कुछ दूर ही खड़ी रह गईं। उनके नयनों में आश्चर्य उभर रहा था..... ऐसी सुंदर जोड़ी किसी प्रकार के वाहन के बिना यहां कैसे आ गई? तरंगलोला ने एक युवती से पूछा-बहिन गांव में जाने का रास्ता कौन-सा है?' बहिन ने रास्ता बताया और दोनों उसी ओर चल पड़े। पद्मदेव ने देखा कि गांव दुर्ग से घिरा हुआ नहीं है, परन्तु विविध लताओं से शोभित थोर की बाड़ गांव के चारों ओर है और तूंबे उन बेलों पर लटक रहे हैं। विविध फूल भी वहां शोभित थे। दोनों गांव में प्रविष्ट हुए। २०. वेदना की बदली तरंगलोला के अलंकारों की पेटी लेने त्वरित चरणों से चलती हई सारसिका मुख्य मार्ग पर आई तब उसके मन में यह विचार उभरा कि.....' तरंग का यह साहस अत्यंत भयंकर है..... और यदि वह अलंकारों के साथ पलायन करेगी तो पद्मदेव और तरंग-दोनों का अपवाद होगा और उनका जीवन कलंकित हो जाएगा..... अब क्या करूं? सखी ने मुझे विश्वास के साथ भेजा है। यदि मैं उसका कार्य संपादित न करूं तो वह कितनी दुःखी होगी? ऐसे परस्पर विरोधी विचार सारसिका के हृदय को मथ रहे थे और मनुष्य जब विचारों की तरंगों में फंस जाता है तब उसकी गति स्वयं मंद हो जाती है। सारसिका की त्वरित गति स्वयं मंद हो गई। राजमार्ग पर कुछ दूर चलने पर अचानक उसके कानों में ये शब्द पड़े-कौन? सारसी?' सारसिका चौंक कर वहीं खड़ी रह गई। उसके पिता घर जाने के लिए सामने से आ रहे थे। सारसिका अब स्वयं को छुपाने की स्थिति में नहीं थी। वह बोली-'हां, पिताजी...... 'अभी तुम किस ओर गई थी?' पिता ने निकट आकर पूछा। 'अपनी सखी के एक प्रयोजन के लिए गई थी....परन्तु बहुत प्रतीक्षा करने पर भी कार्य नहीं हुआ।' सारसिका ने झूठी बात कही। _ 'तेरा रात्रि में इस प्रकार अकेली आना क्या उचित है? ऐसा कौन सा कार्य था?' "उसके सगपन की चर्चा चल रही है। तरंग की इच्छा थी कि मैं धनदेव सेठ के पुत्र पद्मदेव कैसा है, इसको देख आऊं। इस बात की किसी को खबर न लगे, इसलिए इस समय जाना पड़ा। परन्तु पद्मदेव नहीं मिलें। इतने विशाल भवन में मैं कैसे जाऊं, इसी चिन्तन में मैं बाहर खड़ी-खड़ी सोचती रही। कोई भवन से बाहर पूर्वभव का अनुराग / १२५
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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