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________________ हम जो चाहेंगे वह कार्य कर पाएंगे, सर्वत्र सफलता प्राप्त होती रहेगी। ऐसे लाभ को छोड़ देने से विपत्ति को निमंत्रण देना है। तुम जैसी सुंदर बलिदान की जोड़ी को छोड़ देने से मां काली रुष्ट हो जाएगी और यहां बसने वाले सभी परिवारों को नष्ट कर डालेगी। नहीं, बहिन! तुम्हारी बात मैं नहीं मान सकता। तुम एक ओर बैठ जाओ.... संसार की कोई भी शक्ति मां के बलि को छीन नहीं सकती।' छोटे सरदार की यह बात सुनकर तरंगलोला रो पड़ी..... अरे रे! ऐसे निर्दयी व्यक्ति के पंजों में फंसने से तो नौका सहित गंगा में डूब मरना अच्छा था। ऐसे कलुषित स्थान में मरना, वह भी एक बलि के रूप में, यह तो महान् रौद्र कर्म है। मेरा और मेरे स्वामी का वध होगा, उष्ण रक्त से मां काली का खप्पर भरा जाएगा और ये लुटेरे दोनों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देवी का प्रसाद मानकर खायेंगे। ओह! ऐसे हमने कौन-से पाप किए हैं? इस प्रकार वह विलाप करने लगी। प्रियतमा की अन्तर्व्यथा से व्यथित होकर पद्मदेव की आंखें भी गीली हो गई। रुद्रयश सहज रूप में मांसाहार कर रहा था और बीच-बीच में मदिरा की चूंट ले रहा था। उस समय बंदी बनी हुई पांच-सात स्त्रियां इस गुफा में आईं और तरंगलोला जहां खड़ी थी, वहीं बैठ गईं। उनमें से एक अधेड़ उम्र की स्त्री बोली-'बहिन! कल्पांत मत कर। हम भी तेरी तरह ही इन निर्दयी लोगों के फंदे में पांच-पांच वर्षों से फंसी हुई हैं। रो-रोकर हमारे आंसू सूख गए हैं...... हमें तो बहुत बार यह विचार आता है कि अच्छा होता, देवी के समक्ष हमारी बलि हो जाती तो हम इस नरक से शीघ्र मुक्त हो जाती...' बेटी! तू धीरज रख... तेरी दर्दभरी वेदना देखकर हमारा हृदय कांप उठा है....।' सहानुभूति व्यक्ति को और अधिक रुलाने वाली होती है। तरंगलोला सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसी समय सायंकाल हो गया था। एक सेवक मशाल लेकर आया और गुफागृह की दीवार में बने एक गड्ढे में उसे स्थापित कर चला गया। तरंगलोला कुछ शांत हुई। रुद्रयश हाथ-मुंह धोने बाहर गया। एक स्त्री भोजन के सारे पात्र लेकर चली गई। रुद्रयश कुछ ही क्षणों के बाद लौट आया और अपने स्थान पर बैठ गया। उस प्रौढ़ स्त्री ने तरंगलोला के रूप-लावण्य को देखकर कहा-'बहिन! तू कोई बड़े घराने की कन्या हो....... राजा की राजकुमारी हो, ऐसा प्रतीत होता है। तू किस ओर जा रही थी? क्या तेरे साथ रक्षक नहीं थे?' तरंगलोला उन पांचों स्त्रियों के सामने देखकर बोली-बहिन! मेरी कथा बहुत विषम है। मैं क्या बताऊं? अरे! हम तो विगत जन्म से वेदना का भार ढो रहे हैं...... हमारे वियोग का अन्त आया और उसी क्षण दूसरी विपत्ति आ गई।' ११८ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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