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________________ इतना सुनते ही प्रत्येक पारधी जवान का चित्त और नेत्र चंचल हो उठे। सभी की दृष्टि स्त्रियों की पंक्ति की ओर गई। सब ने देखा कि उस पंक्ति में नवयौवना रूपवती षोडशी वासरी खड़ी है, जिसका तेज अन्यान्य पारधी स्त्रियों से भिन्न था। सब की दृष्टि उस पर स्थिर हो गई। ___ मुखिया की यह कन्या सभी पारधी युवतियों में आज श्रेष्ठ लग रही थी। उसके उन्नत उरोज उस चांदनी में स्पष्ट नजर आ रहे थे। उसकी केशराशि मानो धरती को गुदगुदा रही हो, ऐसी प्रतीति हो रही थी। उसके नयनों में यौवन की माधुरी फल्गु नदी के प्रवाह की भांति मुक्तरूप से नाच रही थी। उसके सुडौल शरीर में तथा अंग-प्रत्यंग में झलकती जवानी दर्शक को क्षणभर के लिए पागल बना देती थी। सबको यही लगता कि यह कोई कामनगरी वनरानी यहां आ पहुंची है। मुखिया ने कहा-'जो जवान एक ही बाण से वृक्ष पर रखे गए सातों घड़ों को एक साथ बींध देगा और कल पकड़े गए वनमहिष के साथ बिना शस्त्रास्त्रों के लड़कर विजय पा लेगा वह मेरी पुत्री वासरी का स्वामी बन सकेगा। जो मेरी पुत्री को पाना चाहें, वे सब तैयार हो जाएं।' नियम के अनुसार इस प्रतिस्पर्धा में केवल कुंआरे युवक ही भाग ले सकते थे। लगभग सैंतीस स्वस्थ और बलिष्ठ पारधी युवक अपने-अपने धनुष-बाण लेकर आगे आए और एक पंक्ति में खड़े हो गए। उस मैदान के उत्तर दिशा की ओर एक विशाल वृक्ष था। उसकी एक शाखा पर सात घड़े एक पंक्ति में बंधे हुए थे। घटवेध की योजना यह थी कि एक ही बाण से सातों घड़े बींधने होंगे और सातों घड़ों को बींध कर वह बाण बाहर आकर धरती पर गिर जाए, ऐसा करना होगा। वृक्ष की कुछ दूरी पर सात घड़ों की अनेक घट मालाएं तैयार रखी हुई थीं और चार पारधी उनकी सुरक्षा कर रहे थे। वासरी ने तिरछी दृष्टि से स्पर्धा में भाग लेने वाले पारधी जवानों की ओर देखा और फिर नीचे बैठ गई। उसकी दो सखियां उसी के पास बैठ गईं। एक सखी ने उसके कान में धीमें स्वरों से कहा-'अरे! तुझे प्राप्त करने के लिए तो लगता है कि जैसे आकाश ही फट गया हो।' वासरी मौन रही। दूसरी सखी बोली-'तेरे मन में कौन बसा है?' वासरी इसका क्या उत्तर दे ? परिहास का उत्तर परिहास से ही दिया जाए तो उचित होता है। किन्तु वासरी स्त्री-सुलभ स्वाभाविक लज्जावश जड़-सी बन गई थी। और अर्द्धघटिका में ही स्पर्धा प्रारंभ हो गई और स्पर्द्धक पारधियों के हाथों में धनुष-बाण चांदनी के प्रवाह में झिलमिला रहे थे। १० / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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