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________________ तरंगलोला चुप हो गई। परन्तु कर्मों की इस विडंबना से उसका मन रो रहा था। स्वामी का अकल्याण न हो जाए, इसलिए वह रुदन को दबा रही थी परन्तु उसका सुबकना बंद नहीं हुआ। कुछ दूर चलकर सभी लुटेरे एक स्थान पर रुक गए और नौका से प्राप्त जवाहरात की पेटी खोली। उसमें पड़े अलंकारों को देखकर सरदार बोल उठा–‘अच्छा शिकार मिला।' दूसरे लुटेरे ने कहा - यदि हम किसी राजा के महल गए होते और सारा महल छान डाला होता तो भी ऐसे बहुमूल्य आभूषण प्राप्त नहीं होते। ' तीसरा बोला-'कोई जीवन भर परिश्रम कर धन कमाए, जुआ खेले तो भी इतना धन एकत्रित नहीं हो सकता। इन अलंकारों को हम अपनी पत्नियों को देंगे तो वे आनन्द से झूम उठेंगी । ' इसके बाद सरदार ने आगे चलने का संकेत दिया। चलते-चलते पद्मदेव को यह कल्पना हुई कि ये सभी लोग विन्ध्याचल की दक्षिण दिशा की ओर जा रहे हैं। एक पर्वतमाला दिखाई दी। पद्मदेव ने देखा, वह प्रदेश निर्जन था । ऊबड़खाबड़ भूमि पर चलने के कारण तरंगलोला के पैर लाल हो गए थे। इस प्रकार की भूमि पर चलने का कभी अवसर ही नहीं आया था। सदा वाहन तैयार रहते थे। यही स्थिति पद्मदेव की थी। परन्तु पहाड़ी के आसपास गहरी वनराजी थी लुटेरे दोनों को लेकर एक गुफा के द्वार पर पहुंचे। वहां एक भीमकाय मनुष्य खड़ा था। उसने गुफा का द्वार खोला । दिन का दूसरा प्रहर पूरा हो रहा था । इस टोली के नायक ने तरंगलोला और पद्मदेव को एक ओर खड़ा कर उन्हें एक रज्जु से बांध दिया फिर दोनों को गुफा में ले गया। कुछ दूर गुफा में चलने के बाद पद्मदेव ने यह जान लिया कि यह सामान्य गुफा नहीं है, गुफा नगरी है। गुफा की दीवारों पर अनेक शस्त्रास्त्र लटक रहे थे। और गुफा के भीतरी भाग से झांझ, करताल, ढ़ोल आदि की ध्वनि सुनाई दे रही थी साथ ही साथ नृत्य, गान तथा विविध प्रकार की ध्वनियों से कलरव भी हो रहा था। कुछ दूर जाने पर विशाल मैदान दिखाई दिया वहां मंदिर जैसा एक भवन था। पद्मदेव ने मंदिर की ध्वजा देखकर यह जान लिया था कि यह काली देवी का मंदिर है और वहां खड़े स्त्री-पुरुष बलि का उत्सव मना रहे थे। यह दस्यु टोली दोनों को मंदिर के पास ले गई" हुआ कि वहां तो अनेक परिवार निवास कर रहे हैं " थी और वहां खड़े स्त्री-पुरुष दोनों को देखकर तरंगलोला को प्रतीत गुफा एक छोटे गांव जैसी आश्चर्यचकित रह गए पूर्वभव का अनुराग / ११३
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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