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________________ पद्मदेव तरंगलोला से बात करने के लिए विविध प्रसंग उपस्थित करते हुए बोला- 'प्रिये! आज के साहसिक कदम से तुझे कुछ दुःख तो नहीं हुआ ?' पैरों के अंगूठे से नौका को कुरेदते हुए तरंगलोला बोली- 'आप मेरे आराध्यदेव हैं, प्राण हैं, प्रियतम हैं। आपके साथ सुख-दुःख जो भी आए उसे सहन करने के संकल्प के साथ ही इस साहसिक प्रयत्न के साथ जुड़ी हूं। विगतभव से ही मैंने आपके चरणों में स्वयं को समर्पित कर दिया है। आप जो चाहें करें " मेरा पूर्ण समर्पण है। फिर भी मैं एक प्रार्थना करना चाहती हूं बोल, 'स्वामिन् कैसी भी विपत्ति या परिस्थिति आए, आप मुझे अकेली छोड़कर नहीं जाएंगे मुझे सदा साथ रखेंगे" स्नेहबंधन को शिथिल नहीं होने देंगे आप मुझे खाने को कुछ दें या न दें, किन्तु मुझे हृदय का भोजन सदा देते रहेंगे।' 'बोल, तरंग ! बोल । तेरी एक भी भावना अपूर्ण नहीं रहने दूंगा" रुक क्यों गई ?' पद्मदेव बोला- 'प्रिये! मन में किसी प्रकार का संदेह मत रखना "तुझे तनिक भी दुःख नहीं होने दूंगा देख, हम इस शरद् ऋतु की वेगवती नदी में अनुकूल पवन के सहारे सुखपूर्वक यात्रा कर रहे हैं। काकन्दी नगरी के निकट हम पहुंच रहे हैं। उस नगरी में मेरी बुआ रहती है। वहां हमें सुखपूर्वक रहने का स्थान मिलेगा तू मेरे सुख की प्रेरणा है और मेरे दुःख-दर्द का अपनयन करने वाली मेरे जीवन का सर्वस्व है तू मेरे वंश की भूमि है।' तरंगलोला ये शब्द सुनकर भावविभोर हो उठी। १७. लुटेरों के पंजों में दो युवा हृदय हों, दोनों विरह में तड़फ रहे हों, पूर्वभव की स्मृति के साथ जिनकी प्रीति शतदल कमल की तरह खिल उठी हो, एकान्त हो, अंधकार से परिपूर्ण उत्तर रात्रि का समय हो और यमुना नदी के शांत प्रवाह पर नौका चल रही हो तो मनुष्य यदि अधीर होता है तो इसमें संशय कैसा ? 'प्रिये ! पद्मदेव ने चलती नौका में तरंगलोला का एक हाथ पकड़ते हुए कहा -“ एक सूचना दूं।' तरंगलोला ने आंख के इशारे से स्वीकृति दी। पद्मदेव बोला- 'तरंग ! नौका को स्वच्छ किनारे पर ले जाऊं" 'क्यों ? 'वहां नीचे उतर कर हम दोनों गान्धर्व - विधि से विवाह के बंधन से बंध जाएं" ११० / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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