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________________ ‘मधुर चिन्ता काया को प्रेरणा देती है। यदि तू मेरी स्थिति में होता तो तुझे ज्ञात होता कि उस स्थिति को सहज करना कितना कठिन होता है?' पद्मदेव ने कहा। सभी मित्र विदा हो गए। पन्द्रह-बीस कदम मित्रों को पहुंचा कर पद्मदेव भवन की ओर मुड़ा। अचानक उसकी दृष्टि मार्ग के एक छोर पर खड़ी दो नवयौवनाओं पर पड़ी और चांदनी के प्रकाश में उसने सारसिका को पहचान लिया। तत्काल वह उन नवयौवनाओं की ओर गया..... निकट आकर तरंगलोला को देखते ही वह चौंका ...... पूर्वभव की स्मृति के कारण मानो वह उसे पहचान गया हो, वैसे स्वरों में बोला-'ओह! आप.....?' सारसिका बोली-'जिसके चित्र देखकर आप मूर्छित हो गए थे, वह मेरी सखी तरंगलोला है।' पद्मदेव ने तरंगलोला की ओर देखकर कहा-'आज अर्धरात्रि के पश्चात् मैं तुम्हारे भवन पर चित्र देखने आने वाला था, परंतु मेरा सद्भाग्य कि मेरे हृदय को मथने वाली चित्रों की नायिका के सजीव दर्शन हो गए। कुशल तो है न?' तरंगलोला कुछ भी नहीं बोल सकी...... नीचे दृष्टि गाड़े खड़ी रही....... हृदय में तूफान था परन्तु । सारसिका बोली-'श्रेष्ठिपुत्र! गंगा नदी ज्यों उल्लास भरे हृदय से अपने स्वामी समुद्र से मिलने के लिए बहती-बहती आगे बढ़ती जाती है, वैसे ही मेरी सखी आपसे मिलने के लिए उल्लास भरे हृदय से यहां आई है।' सारसिका के ये शब्द सुनकर तरंगलोला हर्ष से कांप उठी...' उसके चेहरे पर प्रस्वेद के बिन्दु उभर आए । पद्मदेव ने स्मृतप्रिया का हाथ पकड़कर अपने हृदय पर रखते हुए कहा-'मेरे समस्त परितापों का हरण करने वाली प्रिये! तेरा कल्याण हो, कहकर उसने तरंगलोला के कमल जैसे नयनों की ओर देखा। तरंगलोला ने पद्मदेव को तिरछी दृष्टि से देखा। तरंगलोला का हृदय प्रियतम के स्पर्श से धड़क उठा। वह एक शब्द भी नहीं बोल सकी।' पद्मदेव बोला-'प्रिये! तूने मेरे से मिलने का यह साहस कैसे किया? तेरे पिताश्री को जब तक मैं समझा न सकू तब तक धैर्य रखना ही श्रेयस्कर है....... मैंने यह बात पत्र में भी लिखी थी। तेरे पिता महाराज के मित्र हैं, अग्रेसर हैं और इस नगरी में उनकी अपूर्व प्रतिष्ठा है। तेरे इस आचरण को यदि वे जान लेंगे तो उनको कितना आघात लगेगा और यदि वे कुपित हो जायेंगे तो मेरा प्रयत्न निष्फल होगा। इतना ही नहीं, मेरा परिवार भी शत्रु बन जायेगा। मैं प्रार्थना करता पूर्वभव का अनुराग / १०७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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