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________________ भावों के अनुसार आशा प्रगट हुई है कि अब प्रिया से मिलन अवश्य होगा और तब मेरा जीवन रसमय बन पायेगा। यह कहकर पद्मदेव ने सारसिका को सारा वृत्तान्त कह सुनाया कि पूर्णिमा की रात्रि में चित्रांकनों को देखकर उसे कैसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई और किस प्रकार उसने चित्रों के माध्यम से अपने पूर्वजन्म को जान लिया। सारसिका समझ गई कि तरंगलोला और पद्मदेव की बातों में साम्य है। श्रेष्ठीपुत्र की बात सुनने के पश्चात् सारसिका ने तरंगलोला के जातिस्मरण की बात भी संक्षेप में बता दी। पद्मदेव बोला-'सुंदरी! तुम्हारी सखी के चित्रों को देखने के पश्चात् मेरे हृदय में वियोग का शल्य चुभने लगा और वह और गहराई में घुसता गया। मैं विवश हो गया।' यह कहकर पद्मदेव ने विगत पांच दिनों की हृदय-विदारक कथा कह सुनाई। पद्म ने आगे कहा-माता-पिता को मैं दुःख देना नहीं चाहता था। वे मेरे लिए सुन्दरतम कन्या की खोज करने में लगे थे। परन्तु मैं...। सुन्दरी! मैंने अंतिम निर्णय कर लिया था कि दिन में आत्महत्या करना उचित नहीं होगा। अत: आज रात को, जब सभी निश्चित होकर नींद लेते होंगे, तब प्रिया की स्मृति के साथ आत्महत्या करने का मेरा अटल निर्णय था। तुम उचित समय पर आई हो। तुम्हारी बातें सुनकर तथा तुम्हारी सखी के भावों को पत्र द्वारा जानकर जीवन की आशा जागृत हुई है। तुम अपनी सखी से कहना-'जिसके पीछे तुमने सती होकर अपने आपका बलिदान दिया है, जिसको तुमने महान् मूल्य चुकाकर खरीदा है वह तुम्हारा दास बनने में गौरव का अनुभव करेगा। तुम्हारे वियोग का अपार दुःख होने पर भी आशा की टिमटिमाती लौ ने मुझे सावचेत किया है.' मेरे विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक पत्र भी मैं तुझे लिखकर देता हूं, उसे तुम अपनी सखी को दे देना।' पद्म ने पत्र लिखा और सारसिका को देते हुए पूछा-'सुंदरी! तेरा नाम?' 'सारसिका।' 'अति मधुर नाम है.... अब जा..... भूल मत जाना कि मैंने मेरा निर्णय बदल डाला है।' सारसिका नमन कर खंड से बाहर आई और जिस मार्ग से भवन में प्रवेश किया था, उसी मार्ग से भवन के बाहर चली गई। जब वह तरंगलोला के पास आई, तब सूर्य पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहा था। नगरसेठ के भवन में ब्यालू की तैयारियां हो रही थीं। तरंगलोला अपने ही खंड में बैठी थी। सखी सारसिका को आते देख उठी और बोली-'सखी! क्या वे मिले?' १०२ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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