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________________ द्वितीय अध्याय क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप जीवन की गुत्थियां आसान नहीं है। बिन्दु तथा रेखा से प्रारंभ होनेवाला जीवन का गणित कई आकृतियों का सृजन और भंजन करते हुए विशिष्ट समीकरणों के निर्माण में जुट जाता है। ऐसे समीकरणों का अस्तित्व उभरकर सामने आता है जिसमें अन्तर्निहित प्रत्येक पद अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना से ही संतुष्ट है। जीवन की नियति चेतना है। किन्तु यही जीवन की चेतना चिन्तन की पगडंडियों से भटक कर संवेगों के चक्रव्यूह में फंस जाती है। संवेगों का उत्स कर्म है। कर्मवाद पर भारतीय तत्त्व चिंतकों ने गहराई से चिन्तन, मनन और मंथन किया है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि आत्मा का सहज स्वरूप शुद्ध है। उसकी वैभाविक परिणति में मुख्य हेतु कर्म है। कर्म का मूल हेतु क्रिया है। क्रिया क्या है ? वह आत्मा के साथ कैसे सम्बन्ध स्थापित करती है ? इन प्रश्नों का समाधान अपेक्षित है। और उसी का प्रयास यहां किया जा रहा है। क्रिया का अर्थ एवं परिभाषा "भावे करणादौ सूत्र से कृश् + टाप् प्रत्यय का योग होने पर 'क्रिया' शब्द की सिद्धि होती है। सूत्रकृतांग चूर्णि में क्रिया, कर्म, परिस्पंद और कर्मबंध- ये एकार्थक माने गये हैं। आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजनं सम्प्रधारणम्। उपायः कर्मचेष्टा च चिकित्सा च नव क्रिया क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 29
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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