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________________ आनुवंशिकता, परिस्थिति, पर्यावरण तथा मनोविज्ञानिक कारणों के साथ मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार को असंतुलित बनाने का एक कारण जीन्स में निहित है। जीन के साथ रासायनिक परिवर्तन भी व्यक्ति की बदलती मनोदशाओं का कारण बनता है। जैन दृष्टि में व्यक्तित्व का रूपान्तरण, वृत्तियों का शोधन, व्यवहार परिष्कार सूक्ष्म शरीर से संचालित है। कर्म जैसे सूक्ष्म शरीर की व्याख्या को आज की भाषामें गहन मनोविज्ञान कहा जा सकता है। अन्तिम अध्याय विशेषतः क्रिया के मानसिक स्तर का समझने में सहायता करता है। हमारी प्रवृत्ति के मूलत: तीन आधार है - मन, वचन और शरीर। शरीर और वाणी की चर्चा पूर्व के अध्यायों में ही की जा चुकी है। प्रस्तुत अध्याय में मन के व्यापार के संदर्भ में समझने का प्रयास किया गया है। मनोविज्ञान में बीमारी का कारण हैं -मानसिक विकृतियां। प्रत्येक घटना के साथ मन संपृक्त है। मन संपृक्त न हो तो राग-द्वेष, सुखदुःख, आनन्द-पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, संवेदन नहीं होता। जैन दर्शन में भी बीमारी का मूल कारण काषायिक वृत्तियों की प्रबलता को माना गया है। मोहनीय कर्म की ही विविध दिशाएं है। मनोविज्ञान में वृति नियन्त्रण के लिए दमन, विलयन, मार्गान्तीकरण आदि का निर्देश है। उसी प्रकार जैनदर्शन में मोहकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम की प्रक्रिया का निर्देश मिलता है। इन सभी प्रक्रियाओं से गुजरने पर व्यक्तित्व भी भिन्न प्रकार का हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों को भी मन की गहराई में जाने के लिए कर्मशास्त्र का अध्ययन करना आवश्यक है। अन्यथा मन के अनेक पहलु अज्ञात रह जाते हैं। इस प्रकार आचरणों की कार्य-कारणात्मक मीमांसा का नाम है कर्म-शास्त्र। प्राचीन शरीर-विशेषज्ञों ने हृदय, स्नायु, संस्थान, गुर्दा आदि शरीर के मुख्य अवयवों को शरीर का संचालक माना है। वर्तमान की खोजों ने प्रमाणित कर दिया कि मूल कारण ये नहीं। अन्तःस्रावी ग्रंथियों के स्राव शारीरिक और मानसिक क्रियाकलापों के नियामक है। अन्त:स्रावी ग्रंथियों के स्रावों का प्रभाव संपूर्ण शरीर में होता है। आत्मा भी शरीर व्यापी है। शरीर के किसी भाग से कर्म का प्रकटीकरण हो सकता है। ग्रंथियों के प्रभाव स्थल को कर्म का प्रभाव स्थल भी माना जा सकता है। आवेगों के शोधन, परिवर्तन आदि पर मनोविज्ञान में विचार किया गया है। जैन कर्म-शास्त्र में भी आवेग परिशोधन की तीन पद्धतियां वर्णित हैं। 1. उपशम, 2. क्षयोपशम एवं 3. क्षयीकरण। 404 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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