SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करता है और उससे किसी न किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है। जिस किसी पदार्थ का अस्तित्व है तो निश्चित वह उपयोगी भी होगा। निरूपयोगी पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं होता। अर्थक्रिया और पदार्थ की सत्ता में व्याप्य-व्यापक संबंध है। अर्थक्रिया व्यापक है, पदार्थ की सत्ता व्याप्य है। व्यापक अर्थक्रिया के अभाव में व्याप्यभूत सत्ता का भी स्वतः अभाव हो जाता है। यही कारण है कि वस्तु के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए क्रिया की सिद्धि अनिवार्य है। क्रिया के अस्तित्व का स्वीकार किये बिना आत्मवाद, पुनर्जन्मवाद, कर्मवाद और परिणमन जैसे सिद्धांत भी निराधार हो जाते है। क्रियावाद दार्शनिक चर्चा-परिचर्चा का मुख्य विषय रहा है। प्रथम अध्याय के अन्तर्गत क्रिया की दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत की गई है। इस से स्पष्ट होता है कि क्रिया का सिद्धांत प्राचीन काल से दार्शनिक मतभेद का प्रमुख आधार रहा है। क्रियावाद और अक्रियावाद में दार्शनिक परम्पराओं को वर्गीकृत करने का अर्थ यह हुआ कि 363 दार्शनिक विचारधाराओं में से अधिकतम विचारधाराएं इस विषय पर विमर्श कर रही थी। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य जिसे भारतीय दर्शनों में मोक्ष-पुरूषार्थ की संज्ञा दी गई है उसे प्राप्त करने के लिए क्रिया की अनिवार्यता है या अक्रिया की। दूसरा, बन्धन का कारण क्रिया किस रूप में बनती है- इन पर भी चिन्तन करना आवश्यक था। जैनदर्शन इन दोनों दृष्टि से चिंतन के क्षेत्र में अग्रणी दर्शन कहा जा सकता है। द्वितीय अध्याय में आचारशास्त्रीय दृष्टि से क्रिया पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि आचारशास्त्रीय संदर्भ में क्रिया का चिन्तन एक स्वतन्त्र शोध प्रबन्ध का विषय है तथापि आचार भी दर्शन का ही एक अंग है। यही कारण है कि द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत आचार के संदर्भ में क्रिया पर विचार किया गया है। यह अध्याय इसका प्रबल साक्ष्य है कि सूक्ष्म और स्थूल दोनों जगत् में क्रिया से किस प्रकार का बंधन होता है। व्यक्ति स्वयं हिंसा आदि असामाजिक प्रवृत्तियों के द्वारा बन्धन करता है। यह बात सभी दर्शनों में समान रूप से मान्य है। किन्तु स्वयं संलग्न नहीं होने पर भी आन्तरिक आसक्ति के कारण से, यहां तक कि मृत्यु के पश्चात् भी किस प्रकार से बन्धनग्रस्त होता है - यह एक नया और सूक्ष्म चिन्तन है, संभवत: जैनागमों में ही देखने को मिलता है। तृतीय अध्याय में क्रिया और कर्म के पारस्परिक संबंध पर विचार किया गया है। सृष्टि में मुख्यतः दो ही तत्त्व क्रियाशील हैं- जड़ और चेतन। दोनों का स्वभाव एक दूसरे से भिन्न हैं। फिर भी इनमें अन्त:क्रिया होती है। ये एक दूसरे को प्रभावित कैसे करते हैं? जैन दर्शन के अनुसार हर संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है। इसलिए मूर्त के द्वारा मूर्त के 398 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy