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________________ बौद्ध दर्शन में भी चित्त की चार अवस्थाओं का निर्देश मिलता है। 42 1. कामावचर 2. रूपावचर 3. अरूपावचर 4. लोकोत्तर कामावचर - चित्त की वह अवस्था, जिसमें कामनाओं, वासनाओं का प्राधान्य रहता है, वितर्क- विचारों का बाहुल्य व मन बहिर्मुखी बना रहता है। रूपावचर - इसमें वितर्क एवं विचार के साथ एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। किन्तु मन की एकाग्रता का आलम्बन स्थूल विषय ही रहता है। अरूपावचर - इस भूमिका में चित्त की वृत्तियों में स्थिरता आती है, लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। लोकोत्तर - यहां वासना - संस्कार, राग-द्वेष एवं मोह का नाश हो जाता है। अर्हत् पद एवं निर्वाण की प्राप्ति इसी भूमिका से होती है। जैन दर्शन में वर्णित विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर एवं योग दर्शन का क्षिप्त और मूढ़ चित्त समानार्थक है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की विभिन्न अवस्थाओं के नाम में अन्तर प्रतीत होता है, मूलभूत दृष्टिकोण में अन्तर नहीं। निम्नांकित तालिका से यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है बौद्ध जैन विक्षिप्त यातायात श्लिष्ट सुलीन मन की अन्य तीन अवस्थाएं 374 कामावचर रूपावचर अरूपावचर लोकोत्तर 43 (1) विक्षेप ( 2 ) एकाग्रता (3) अमन योग क्षिप्त एवं मूढ़ विक्षिप्त एकाग्र निरुद्ध विक्षेप की अवस्था में स्मृतियों, कल्पनाओं, विचारों का सातत्य बना रहता है। चित्त व्यग्र रहता है। व्यग्रता की स्थिति में व्यक्ति ध्येय तक नहीं पहुंच पाता। इसमें मन किसी एक आलम्बन पर स्थिर नहीं रहता। अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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