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________________ उवओग दिट्ठ सारा, कम्म पसंग परिघोलण विसाला । साहुक्कार फलवई, कर्म समुत्था भवइ बुद्धि || 28 देववाचक ने कर्मजा बुद्धि के तीन लक्षण बतलाये हैं (1) विवक्षित कर्म को तन्मयता के साथ करना । भावक्रिया से करना । मन, वचन और शरीर की एकाग्रता से किये गये कार्य से कौशल प्राप्त होता है। (2) निरन्तर एक ही कार्य के अभ्यास एवं चिन्तन से कार्य - दक्षता बढ़ती है। (3) कर्मजा बुद्धि से निष्पन्न कार्य सिद्ध, प्रशंसित और अनुमोदित होता है। देववाचक ने इस संदर्भ मे सौवर्णिक, चित्रकार, तन्तुवाय, बढ़ई, कान्दविक आदि का उदाहरण के रूप में उल्लेख किया है। पारिणामिकी बुद्धि अवस्था प्राप्ति के साथ व्यक्ति में जो बुद्धि-पाटव उत्पन्न होता है, वह पारिणामिकी बुद्धि है। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया अणुमाण - हेऊ - दिट्ठतसाहिया, वयविवागपरिणामा । हियणिस्सेयसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ।। 29 देववाचक ने इसके भी तीन लक्षण बताये हैं (1) पारिणामिकी बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति कार्य सिद्धि के लिये अनुमान, हेतु एवं दृष्टान्त का सम्यक् प्रयोग करना जानता है। (2) अवस्था के साथ पारिणामिकी बुद्धि भी उत्तरोत्तर विकसित होती है। (3) पारिणामिकी बुद्धि से अभ्युदय और निःश्रेयस तथा उनके साधनों को जाना जाता है। मानसिक विकास और उसकी भूमिकाएं प्राणीमात्र में चेतना समान है किन्तु उसके विकास में तारतम्य है। संज्ञात्मक चेतना गर्भज-पंचेन्द्रिय में ही होती है। चेतना का न्यूनतम विकास तो एकेन्द्रिय जीवों में भी होता है किन्तु सघन कर्मवर्गणाओं से आक्रान्त एवं स्त्यानर्द्धि निद्रा के तीव्र विपाक से युक्त होने के कारण वे निश्चेष्ट प्रायः रहते हैं। उनकी ज्ञान-चेतना इतनी अव्यक्त होती है कि वे अपने इष्ट के लिये प्रवृत्ति एवं अनिष्ट के लिये निवृत्ति में भी अक्षम होते हैं। क्रिया और मनोविज्ञान 371
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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