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________________ सप्तम अध्याय क्रिया और शरीर-विज्ञान हमारा अस्तित्व चेतन एवं अचेतन तत्त्वों का जटिलतम संयोग है। शरीर मुक्त आत्मा की भौतिक जगत के साथ अनुक्रिया संभव नहीं है। सांसारिक क्रिया-प्रतिक्रिया और भोग शरीराधीन हैं। शरीर का निर्माण जीव स्वयं करता है और उसके माध्यम से क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। पन्नवणा के बारहवें पद में शरीर के सम्बन्ध में काफी चिंतन किया गया है। जैन दर्शन में शरीर की अवधारणा जो उत्पत्ति के समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है, जिसके द्वारा भौतिक सुख दुःख का अनुभव होता हैं तथा जो शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, उसे शरीर कहते हैं। सर्वार्थसिद्धि में कहा भी गया है- 'विशिष्टकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि'जो विशेष नामकर्म के उदय से मिलते हैं, वे शरीर हैं। आचार्य तुलसी ने शरीर को परिभाषित करते हुए लिखा है- 'पौद्गलिक सुख-दुःखानुभव साधनम् शरीरम्' अर्थात् जिसके द्वारा पौद्गलिक सुख-दुःख का अनुभव हो, वह शरीर कहलाता है। शरीर के प्रकार जैन-तत्त्व-मीमांसा में पांच प्रकार के शरीरों का उल्लेख है- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस्, कार्मण। __इन्हें हम क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम इन चार भागों में विभाजित कर सकते हैं- औदारिक शरीर स्थूल है। वैक्रिय और आहारक शरीर सूक्ष्म हैं। तैजस् अपेक्षाकृत सूक्ष्मतर एवं कार्मण सूक्ष्मतम शरीर है। क्रिया और शरीर - विज्ञान 311
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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