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________________ आवरण से वास्तविक और अवास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं। ऐसे प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते है- वर्णादि-विकार परिणत और प्रतिबिम्ब मात्रात्मक।45 वर्णादि विकार-परिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिये जाते हैं, जो विपर्यस्त हो जाते हैं और जिनका परिमाण परिवर्तित हो जाता है। प्रतिबिम्ब मात्रात्मक प्रकाश-रश्मियों के मिलने से बनते हैं और प्रकाश की ही पर्याय होने से स्पष्ट रूप से पौद्गलिक हैं। ध्वनि जैसे विद्युत तरंगों के रूप में लोकान्त का स्पर्श करती है, वैसे छाया भी विद्युत तरंगों के रूप में आकाश में व्याप्त हो जाती है। लाखों मील दूर से प्रसारित ध्वनि रेडियों द्वारा ग्रहण कर सुनी जाती है। उसी प्रकार लाखों मील दूर से प्रसारित प्रतिच्छाया टेलिविजन से ग्रहण कर पर्दे पर देखी जाती है। चन्द्रमा पर उतरे अंतरिक्ष यानों द्वारा वहां के दृश्यों के प्रसारित प्रतिबिम्ब पृथ्वीवासियों के द्वारा परदे पर देखना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। निष्कर्ष यह है कि छाया-प्रतिच्छाया तरंग रूप होती है। तरंगें शक्ति या पदार्थ हैविज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धांत है। दर्पण में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब, पानी में परछाई आदि भी छाया के रूप और पुद्गल की पर्याय हैं। विज्ञान ने परछाई को पदार्थ तो माना ही है, उसे भारयुक्त भी माना है। प्रकाश-अंधकार पुद्गल का परिणमन प्रकाश और अंधकार रूप में भी होता है। प्रकाश का विरोधी अंधकार है।46 पुद्गलों का सघन कृष्णवर्ण के रूप में जो परिणमन होता है, उसे अंधकार कहते हैं। नैयायिक आदि दार्शनिकों ने अंधकार को भावात्मक द्रव्य न मानकर प्रकाश का अभाव माना है। जैन दार्शनिकों ने अंधकार को प्रकाश की भांति भावात्मक तत्त्व स्वीकार किया है। प्रकाश का रूप है, अंधकार का भी अपना रूप है। __ आधुनिक विज्ञान ने भी अंधकार को पृथक् तत्त्व माना है। वैज्ञानिक दृष्टि से अंधकार में भी उपस्तु-किरणों का सद्भाव है। जिनसे उल्ल और बिल्ली की आंखें तथा कुछ विशिष्ट चित्रित पट प्रभावित होते हैं। इससे सिद्ध है कि अंधकार का प्रकाश से अलग अस्तित्व है।48 जिसका प्रत्यक्ष होता है जिसमें वर्ण इत्यादि पाये जाते हैं उसका स्वतंत्र अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। वर्ण किसी वस्तु का ही होगा, अवस्तु का नहीं। जब वर्ण प्रत्यक्ष है तो क्रिया और परिणमन का सिद्धांत 301
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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