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________________ 8. . शुभेच्छा - कल्याण - कामना। 9. विचारणा - सदाचार में प्रवृत्ति का निर्णय। 10. तनुमानसा - इच्छाओं, वासनाओं के क्षीण होने की स्थिति। 11. सत्त्वापत्ति - शुद्धात्म-स्वरूप में अवस्थिति। 12. असंसक्ति - आसक्ति के निरसन की अवस्था। 13. पदार्था- भाविनी-भोगेच्छा का पूर्ण विलय। 14. तूर्यगा - देहातीत अवस्था। प्रथम सात भूमिकाओं का सम्बन्ध अज्ञान से है। शेष का संबंध ज्ञान से है। अक्रिया का विकास और निष्पत्ति कर्म अकर्म के बिना नहीं चल सकता। हृदय धड़कता है इसलिये आदमी जीता है, यह आम धारणा है। यदि ह्रदय विश्राम न करे, प्रतिक्षण धड़कता ही रहे तो एक दिन भी जीना संभव नहीं होगा। इसलिये प्रत्येक क्रिया के साथ अक्रिया का योग जरूरी है। अक्रिया में योग का पूर्ण निरोध हो जाता है। 143 योग का निरोध होने से शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। उस स्थिति में ऐपिथिक तथा एजनादि क्रियाएं भी बन्द हो जाती हैं। इस प्रक्रिया से कर्मों का व्यवदान अर्थात् शोधन होता है। इस प्रकार अक्रिया से निर्वाण (मुक्ति) होता है। यह तथ्य स्थानांग के इस प्रसंग से काफी स्पष्ट हो जाता है - 144(क) 1. श्रवण का फल ज्ञान है। 2. ज्ञान का फल विज्ञान है। 3. विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। 4. प्रत्याख्यान का फल संयम है। 5. संयम का फल कर्म-अनाश्रव (निरोध) है। 6. अनाश्रव का फल तप है। तप का फल व्यवदान (निर्जरा) है। 8. व्यवदान का फल है अक्रिया - मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध।144(ख) 9. अक्रिया का फल निर्वाण है। 10. निर्वाण का फल है सिद्धि गति। 144(ग) अन्तक्रिया की विविध अवस्थाएं जीव की अन्तिम क्रिया जिससे जीव कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके योग निरोधात्मक अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया 264
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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