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________________ वृद्धिंगत होता जाता है। इस संदर्भ में सूत्रकृतांग में कछुए का दृष्टांत दिया गया है कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को समेटकर खतरे से सुरक्षित हो जाता है, उसी प्रकार साधक अध्यात्म योग द्वारा अन्तर्मुखी बन अपने को पाप - प्रवृत्तियों से बचायें । वस्तुतः मन-वाणी, शरीर और इन्द्रिय-व्यापारों का संयमन ही समाधि का पथ है। 7 तथागत बुद्ध भी अंगुत्तर निकाय में कहा- - गुप्तेन्द्रिय होने से तज्जन्य आश्रव क्रिया नहीं होती । " संवर और निर्जरा का आलम्बन लेकर साधक परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। निर्जरा से भी अधिक महत्त्व संवर का है। निर्जरा प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव के भी हो सकती है किन्तु संवर का प्रारंभ पांचवें गुणस्थान से ही होता है। संवर के अभाव में आश्रव निरोध संभव नहीं है। क्रिया और आश्रव तथा अक्रिया और संवर का परस्पर संबंध है तथा क्रिया से अक्रिया की ओर जाने का अर्थ आश्रव से संवर की ओर प्रस्थान है। क्रिया और निर्जरा जैन दर्शन में बंधन - मुक्ति की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करने वाले दो शब्द हैंसंवर और निर्जरा । अनादिकालीन सकर्म, सराग, सयोग आत्मा निमेष मात्र के लिये भी अक्रिय नहीं बनती। वह सतत क्रियाशील रहती है। स्थूल या सूक्ष्म, ज्ञात या अज्ञात किसी न किसी रूप में संसारी आत्मा सतत प्रवृत्तिशील होती है। जिस प्रकार प्रतिक्षण श्वासोच्छ्वास के रूप में योग्य वायवीय परमाणुओं का ग्रहण एवं विसर्जन होता रहता है, उसी प्रकार क्रियाशील आत्मा प्रति समय कर्म योग्य अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं का ग्रहण एवं निर्जरण करती है। ग्रहण के साथ विसर्जन भी सतत चालू रहता है। इस विसर्जन का नाम निर्जरा है। जीव और अजीव का सम्बन्ध अनादि है । सम्बन्ध की प्रगाढ़ता में किसका योगदान है। इस संदर्भ में ध्यान सीधा कर्म शरीर पर पहुंचता है। कर्म शरीर निरन्तर क्रियाशील है। उसके पास एक ऊर्जा का स्रोत है, वहां से विद्युत प्राप्त हो रही है। पारिभाषिक शब्दावली में इस ऊर्जा भंडार को आश्रव कहा गया है। आश्रव से कर्म शरीर पुष्ट होता है। शरीर में विद्युत आगमन की तीन प्रणालियां है- शरीर और उसके सहयोगी वाणी एवं मन। इन्हें ही योग कहा जाता है। - इन तीनों से जुड़ी हमारी प्राणधारा निरंतर कर्म - पुद्गलों को आकृष्ट कर रही है। बंधन की प्रक्रिया अविराम गति से चल रही है। इस गति को अवरुद्ध करने वाले दो तत्त्व हैं - संवर और निर्जरा। संवर का कार्य नये कर्म के प्रवाह को रोकना हैं। पुराने कर्मों अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया 244
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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