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________________ चतुर्थ अध्याय क्रिया और पुनर्जन्म क्रिया और पुनर्जन्म का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इसी सम्बन्ध को जानने के लिये क्रियावाद का विकास हुआ। जैन दर्शन के आधार स्तंभ आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद आदि है। आत्मा का अस्तित्व है, वह क्रिया करती है और उससे कर्म बंध होता है। कर्म है तो उसका फल भी है। फलभोग के लिए जन्म भी अनिवार्य है। जन्म से पूर्व भी जीवन था मृत्यु के बाद भी वह रहेगा। वर्तमान जीवन उसकी मध्यवर्ती कड़ी है। जिसका मध्य है, उसका पूर्वापर भी निश्चित ही होगा। आचारांग में कहा है- 'जस्स नत्थि पुरा-पच्छा, मज्झ तस्स कओ सिया।' (क) आचारांग भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म इन दोनों का अस्तित्व होने पर ही वर्तमान जन्म का अस्तित्व हो सकता है। यह पूर्वापर श्रृंखला ही पुनर्जन्म का सिद्धांत है। भारतीय दर्शन का अध्ययन इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त शेष सभी दर्शनों ने कर्मवाद की तरह पुनर्जन्म को भी स्वीकार किया है। भारतीय चिंतन में आत्मा को केन्द्र में रखकर दो प्रकार की विचारधाराएं विकसित हुई। एक वह जो आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को मान्य करती है। दूसरी वह, जो आत्मा के अस्तित्व को वर्तमानकालिक या क्षणिक ही मानती है। इन्हें क्रमशः क्रियावादी और अक्रियावादी के नाम से अभिहित किया जाता है। क्रियावादियों ने आत्मा के अस्तित्व को प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयास किया तथा पुनर्जन्म की उसी संदर्भ में प्रस्तुति दी है। सर्वसम्मत तथ्य यह है कि शुभाशुभ कृत कर्मों का फल प्रत्येक प्राणी को भोगना पडता है। (ख) कुछ कर्मों के फल वर्तमान-जीवन सापेक्ष हैं तो कुछ कर्मों के फल-भोग के लिये क्रिया और पुनर्जन्म 181
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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