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________________ से भी- अतीतकाल वर्तमान व्यक्तित्व का एवं वर्तमान भविष्य के व्यक्तित्व का घटक है।105 कोई भी अच्छा-बुरा कर्म निष्फल नहीं होता। जैन तत्त्व ज्ञान के अनुसार पुण्य कर्म वे शुभ परमाणु हैं जो शुभ प्रवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ-अध्यवसाय शुभ विचारों एवं क्रियाओं के प्रेरक होते हैं तथा,शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक अनुकूलताएं प्रदान करते हैं। वैज्ञानिक जगत् में तथ्यों, घटनाओं की व्याख्या में जो स्थान-कार्य-कारण सिद्धांत का है वही स्थान आचार एवं व्यक्तित्व की व्याख्या में कर्मों का है। प्रो. हिरियन्ना के अनुसार कर्म सिद्धांत का आशय यही है कि नैतिक जगत् में भी भौतिक जगत् की भांति पर्याप्त कारण के बिना कुछ घटित नहीं हो सकता। आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। जैनागम भगवती में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा स्वकृत सुख-दुःख का भोग करता है। परकृत सुख-दुःख का भोग नहीं करता।106 कर्म सूक्ष्म तत्त्व है। सूक्ष्म तत्त्व को समझने के लिए लेश्या, कषाय और अध्यवसाय को समझना भी आवश्यक है। अध्यवसाय कर्म बंध का कारण है इसलिए मन, वचन, क्रिया शून्य असंज्ञी जीवों के भी कर्म बंधन होता रहता है। लेश्या अध्यवसाय का हेतु है। कषाय कर्मों का संश्लेषक है। इस संश्लेषक के कारण ही कर्म बंध की दो अवस्थाएं बनती हैं। 107 सकषाय अवस्था में साम्परायिक और निष्कषाय अवस्था में ईर्यापथिक का बंध होता है। लेश्या और योग का भी अविनाभावी सम्बन्ध है। योग का निरोध होने पर लेश्या की परिसमाप्ति हो जाती है। लेश्या जब अशुभ से शुभ बनती है तो कर्म से अकर्म की ओर प्रस्थान होता है। संदर्भ सूची 1. सूत्रकृतांग, श्रु.1, अ.15 की टीका - भावो अन्तःकरणस्य प्रवृत्तिविशेषः। 2. भावश्चित्ताभिप्रायः 3. आचारांग, श्रु.1, अ.8/6 की टीका 4. समयसार, 271 5. प्रज्ञापना, 17/4/1 उवांग सुत्ताणि खण्ड ; 2 पृ. 221 6. उत्तराध्ययन; 34/2 7. प्राकृत पंच संग्रह ;1-142 176 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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