SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठ कर्मों के कथन, क्रम निर्धारण आदि, श्वेताम्बर आगम ग्रंथ, पंच - संग्रह की टीका, कर्म विपाक की टीका, जय सोमसूरिकृत टब्बा, जीवविजयकृत बालावबोध आदि में उपलब्ध हैं। ज्ञानावरणादि कर्मों में जो अनुक्रम है, सर्वत्र एक सा है, कहीं भी व्युत्क्रम नहीं देखा जाता। कर्मों की क्रम व्यवस्था जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग ज्ञान-दर्शन रूप है। दोनों में ज्ञान की प्रधानता है। कारण, किसी भी लब्धि या मोक्ष की प्राप्ति ज्ञानोपयोग में ही होती है। अतः ज्ञान का आवरण भूत कर्म ज्ञानावरण है। दर्शन की प्रवृत्ति ज्ञान के अनन्तर होती है इसलिये दूसरे नंबर पर दर्शनावरण कर्म है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण के तीव्र उदय या क्षयोपशम से जीव को सुख-दुःख की अनुभूति होती है, जिसे वेदनीय कर्म कहा गया है। सुख - दुःखानुभूति के साथ राग-द्वेष की परिणति अवश्यंभावी है, अतः वेदनीय के पश्चात् मोहकर्म का उल्लेख है। मोहग्रस्त जीव आरंभ - परिग्रह आदि अनुष्ठानों से शुभाशुभ आयुष्य कर्म का बंधन करता है। इसलिये मोहनीय के पश्चात् आयुष्य का क्रम रखा गया है। आयु भोग के साथ गति और जाति की प्राप्ति जुड़ी हुई है । अतः आयुष्य के पश्चात् नाम और गोत्र का उल्लेख मिलता है। उच्च गोत्र में दानान्तराय आदि का क्षयोपशम तथा नीच गोत्र में उदय रहता है। इस आशय की स्पष्टता के लिये गोत्र के बाद अन्तराय का स्थान है। इसके साथ ही एक प्रश्न यह भी उठता है कि अन्तराय कर्म घाति है फिर भी अघाति कर्म के पश्चात् क्यों रखा गया है ? समाधान यह है कि अन्तराय कर्म घाती अवश्य है, किन्तु घाती कर्मों की तरह आत्मा के गुणों की सर्वथा घात नहीं करता तथा उसका उदय, नाम आदि अघाती कर्मों के निमित्त से होता है, इससे विपरीत वेदनीय कर्म अघाती होते हुए भी उसका स्थान घाती कर्मों के बीच में है। इसका कारण यह है कि वह घाती कर्म की तरह मोहनीय कर्म बल से जीव के गुण का घात करता है। इस प्रकार आठ कर्मों के क्रम निर्धारण के कुछ निश्चित कारण रहे हैं। कर्म के संक्षेप में दो प्रकार हैं- घाती और अघाती । पीछे घात कर्म- जो कर्म आत्मा के साथ संपृक्त होकर उसके स्वाभाविक गुणों को हानि पहुंचाते हैं, उन्हें घाती कर्म कहते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं। 104 174 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy