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________________ इस प्रकार क्षय एवं उपशम के योग से निष्पन्न जीवदशा क्षयोपशम भाव कहलाता है। 60 इस भूमिका पर प्राणी विकास की ओर अग्रसर होता है। इस भाव के प्रकटीकरण में अध्यवसायों की प्रशस्तता और लेश्या की विशुद्धि प्रमुख कारण होते हैं। हर व्यक्ति के पास योग्यता एवं क्रियात्मक शक्तियां है। योग्यता आत्मा का गुण है। क्रियात्मक शक्ति शरीर के योग से निष्पन्न होती है। कर्म शास्त्र की भाषा में इन्हें क्रमश: लब्धिवीर्य एवं करणवीर्य कहा जाता है। लब्धिवीर्य न हो तो योग्यता का विकास नहीं होता और करणवीर्य के अभाव में कार्य-संपादन नहीं हो सकता । अन्तराय कर्म समाप्त होता है तब व्यक्ति में क्रियात्मक शक्ति प्रकट होती है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म ज्ञान - दर्शनात्मक शक्ति के अवरोधक हैं। मोह कर्म द्वारा आत्मिक आनंद और पवित्रता प्रभावित होती है। इन चारों कर्मों के कमजोर पड़ने पर ही व्यक्तित्व का विकास होता है। इसे क्षायोपशमिक व्यक्तित्व कह सकते हैं। इन कर्मों के पूर्ण रूप से हटने पर समग्र व्यक्तित्व का विकास होता है । इसे क्षायिक व्यक्तित्व कह सकते हैं। औपशमिक भाव कुछ समय के लिये कर्म के उदय - प्रवाह का रुक जाना उपशम है। कर्म के विपाकोदय एवं प्रदेशोदय का सर्वथा अभाव उपशम अवस्था है। उपशम में मोहनीय कर्म कान सर्वथा क्षय होता है, न उदय । अपितु उपशम होता है। इसमें कर्म की सत्ता विद्यमान रहती है। इसके परिणामस्वरूप औपशमिक भाव निष्पन्न होता है। क्षायिकभाव आत्मा से कर्मों का सर्वथा अलग हो जाना क्षय है। इसमें अनन्त चतुष्टयादि आत्म- गुणों का प्रकटीकरण हो जाता है। क्षय की अवस्था विशेष रूप से बारहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है। पारिणामिकभाव उपर्युक्त अवस्थाओं के अलावा स्वाभाविक परिणमन से गुजरने की प्रक्रिया पारिणामिक भाव कहलाते हैं। यह जीव, अजीव सभी में समान रूप से पाया जाता हैं। पारिणामिक भाव कर्मों के उदय और विलय तक ही सीमित नहीं है अपितु यह स्वाभाविक परिणमन भी हैं। उदाहरणार्थ किसी जीव में मोक्ष प्राप्ति की अर्हता है, वह भव्य है, अर्हता अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया 148
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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