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________________ भगवती में भावितात्मा और संवृत अनगार की चर्चा है किन्तु यदि संवृत्त अनगार वीतराग है तो आयुक्त विशेषण की क्या अपेक्षा है ? वीतराग अनायुक्त नहीं होते इसलिये प्रस्तुत प्रकरण में संवृत अनगार वीतराग का वाचक प्रतीत नहीं होता भगवती में ही निग्रंथ के पांच प्रकारों में संवृत बकुश, असंवृत बकुश का उल्लेख मिलता है। बकुश निश्चय ही वीतराग नहीं है। अत: ऐर्यापथिक क्रिया के संदर्भ में आयुक्त संवृत अनगार शब्द वीतराग भिन्न अनगार का वाचक लगता है। इसी प्रकार भावितात्मा शब्द का प्रयोग भी ऐर्यापथिकी के संदर्भ में हुआ हो, संभव कम लगता है। महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में सिद्धसेन के अभिमत पर विमर्श हेतु दो शंका उपस्थित की है।231 प्रमत्त अवस्था में चलने वाले अनगार के साम्परायिकी क्रिया होती है। कोई अनगार आयुक्त-अप्रमत्त अवस्था में चलता है, उसके भी साम्परायिक क्रिया होती है तो फिर गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर का तात्पर्य क्या है? आगम निर्दिष्ट विधि के अनुसार चलने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। आगम निर्दिष्ट विधि के प्रतिकूल चलने से साम्परायिक क्रिया होती है। क्या सभी सराग अनगार उत्सूत्र ही चलते हैं ? आचार्य महाप्रज्ञ ने सिद्धसेन एवं द्रोणाचार्य के मत को विमर्शनीय मानकर भी अनायुक्त एवं यथासूत्र के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किये। प्रकारान्तर से उनका अभिमत सिद्धसेन की अवधारणा के निकट लगता है, जो समीचीन भी है। संवृत अनगार के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे साधना कालीन प्रतीत होता है। वीतरागता साधना नहीं, सिद्धि है। ऐर्यापथिकी अकषायोदय से उत्पन्न क्रिया है। साम्परायिकी कषायोदय का फल है इसलिये दोनों का एक साथ होना संभव नहीं है। वीतराग अवस्था से पूर्व ऐपिथिकी क्रिया का बंध नहीं होता इसलिये वह सादि है। अयोगी अवस्था में इसका बंध रुक जाता है इसलिये यह सपर्यवसित है, सान्त है। 232 ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी दोनों क्रियाओं में जीव का व्यापार निश्चित रूप से रहता है किन्तु कर्म-बंध की दो अवस्थाओं पर प्रकाश डालने के लिये जीव के व्यापार को गौण मानकर इन्हें अजीव क्रिया कहा गया है।233 जिस प्रकार आश्रव के बीस भेदों में से अन्तिम 15 भेदों का एक योग आश्रव में समाहार होता है, उसी प्रकार ऐर्यापथिक के अतिरिक्त चौबीस क्रियाओं का सांपरायिक क्रिया में समावेश हो जाता है। अन्य साहित्य में क्रिया-विचार समाज में सामाजिक उपयोगिता के आधार पर अहिंसा का विकास होता है। क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 99
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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