SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृत्तिकार के इस अर्थ का आधार भगवती भाष्य का आगम पाठ है। आगमकार ने क्रोध, मान, माया, लोभ के लिये व्युच्छिन्न तथा अव्युच्छिन्न शब्द का प्रयोग किया है। यहां क्षीण शब्द का उल्लेख नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अभिमत से व्युच्छिन्न शब्द विमर्शनीय है। व्युच्छिन्न का अर्थ क्षीण होना, यह संगत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में मोह उपशान्त होता है। जयाचार्य ने व्युच्छिन्न का अर्थ उपशान्त होना किया है।212 पतञ्जली ने क्लेश की चार अवस्थाएं बतलाई है -प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। क्लेश समय-समय पर विच्छिन्न होता रहता है। वह सदा लब्धवृत्ति अथवा उदित अवस्था में नहीं रहता।213 अभयदेवसूरि ने भी वोच्छिन्न का अर्थ 'अनुदित' किया है।214(क) इन व्युच्छिन्न और अव्युच्छिन्न पदों के आधार पर ओघनियुक्तिकार और सिद्धसेन का मत चिंतन मांगता है। वस्तुतः गमन मार्ग से होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी है। उसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ केवल योग से होने वाली क्रिया किया गया है। भगवती वृत्ति की व्याख्या में इसे काययोग जन्य माना है214(ख) तथा भगवती वृति में इसे योग निमित्तक कहा है।214(ग) पहले वक्तव्य में काययोग निमित्तक, दूसरे में योग निमित्तक ऐर्यापथिकी क्रिया मानी गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐर्यापथिकी का बंध काययोग से ही होता है क्योंकि वचनयोग एवं मनोयोग पर साधक का पूर्ण नियंत्रण होता है। काय योग पर उतना अनुशासन संभव नहीं। अत: जहां योग का उल्लेख किया वहां काययोग समझना चाहिये। वीतराग के तीनों योग हैं किन्तु प्रमुखता काययोग की परिलक्षित होती है। __भगवती में ऐर्यापथिकी का प्रयोग पन्द्रह स्थानों पर हुआ है। ईर्यापथ बंध का प्रयोग चार स्थानों पर है। वृत्तिकार ने ईर्यापथ का व्युत्पतिलभ्य अर्थ गमन-मार्ग किया है। किन्तु यह अर्थ उपलक्षण मात्र है। चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना आदि स्थूल क्रिया और उन्मेष-निमेष अथवा पलक झपकने जैसी सूक्ष्म क्रिया के साथ भी उसका सम्बन्ध है। इसलिये ईर्यापथ का अर्थ व्यापक संदर्भ में करना चाहिये। ईर्यापथ अर्थात् जीवन-व्यवहार के लिये होने वाली क्रिया। उससे जो कर्म बंध होता है, उसका नाम है ऐर्यापथिकी क्रिया।215 बौद्ध साहित्य में उल्लिखित कायानुपश्यना का स्वरूप ऐर्यापथिकी जैसा ही है। अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया 96
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy