SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया का अर्थ स्थानांग वृत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक में भिन्न है। स्थानांग वृति के अनुसार मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व) के निमित्त से होनेवाली प्रवृत्ति मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है।144 तत्वार्थवार्तिक के अनुसार मिथ्यादर्शन की क्रिया करनेवाले व्यक्ति को प्रशंसा आदि के द्वारा समर्थन देना मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है।145 संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं- सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी। कई प्राणी अनादिकाल से मिथ्यात्वी हैं और अनन्त काल तक मिथ्यात्व से मुक्त नहीं होंगे। तीव्र दर्शन मोह के उदय से मिथ्यात्व की ग्रन्थियां गहरी हो जाती हैं। कुछ ग्रन्थि-विमोचन के लिये प्रयास ही नहीं करते, कई प्रयत्नशील होते हैं किन्तु सफलता प्राप्त नहीं होती, ग्रंथि-भेद नहीं हो पाता। प्रतिक्षण मिथ्यात्व का पाप-कर्म बंधता रहता है। मिथ्यादर्शन क्रिया का सम्बन्ध आत्मा से है। मिथ्यादर्शन क्रिया के दो प्रकार हैं- ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी, तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी। ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी ___ इसमें आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृति अथवा प्रमाण से अधिक या कम मानने रूप मिथ्यादर्शन क्रिया होती है। उदाहरण के लिए आत्मा शरीर प्रमाण है फिर भी उसे अंगुष्ठ पर्व मात्र, यव मात्र और श्यामक जाति के चावल समान कहा जाता है। कोई उसे पांच सौ धनुष्य प्रमाण अथवा सर्वव्यापक कहता है। तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी आत्मा का अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार की विपरीत मान्यता रूप मिथ्यात्व से होने वाली क्रिया तद्व्यतिरिक्त है। मिथ्यात्व किसी भी प्रकार का क्यों न हो, उसमें सत्य के प्रति विमुखता दिखाई देती है। आचार्य पूज्यपाद ने मिथ्यात्व के पांच प्रकारों का उल्लेख किया है- 146 (1) एकान्तिक (2) विपरीत (3) वैनयिक (4) सांशयिक (5) अज्ञान। __(1) एकान्तिक-वस्तु तत्त्व अनन्तधर्मान्तक है। वह विरोधी युगलों का समवाय भी है। किसी एक पक्ष का ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं, सत्यांश है। आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लेना एकान्तिक मिथ्यात्व है। बौद्ध विचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्यात्व कहा है।147 82 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy