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________________ पुरोवाक् भारतीय दार्शनिक विचारधारा में (विशेषत: आचारमीमांसा के संदर्भ में) 'क्रिया' एक महत्त्वपूर्ण विचार बिन्दु रहा है । जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, सभ्यता व संस्कृति के विकास का लक्ष्य हो, 'क्रिया' की महत्ता सदा रही है। भारतवर्ष को 'कर्मभूमि' कहा जाता है क्योंकि यहां की गई 'क्रिया' से हमारे भावी जीवन की दिशा निर्धारित होती है। और लोकोत्तर निःश्रेयस का मार्ग भी प्रशस्त किया जा सकता है।' इसीलिए माना जाता है कि स्वर्ग के देवता भी भारतवासी मानव-जाति का गुणगान - कीर्तिगान करते हुए कहते हैं कि "भारतवासी धन्य हैं, क्योंकि यहां किये गये सदाचार के बल पर 'देव' रूप में जन्म लेकर स्वर्ग-सुख, और कभी-कभी मुक्ति सुख दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं। निश्चित ही इन पर परमात्मा विशेष प्रसन्न है, इसलिए इन्हें परमात्म- सेवा का अवसर प्राप्त होता है। 2 लौकिक जीवन में 'क्रिया' जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, 'निष्क्रियता' का जीवन आदरणीय नहीं रहा है। वैदिक सूक्तों में प्रार्थना - कामना की गई है कि हम 'क्रिया' करते हुए ही शतायु - पर्यन्त जीवन व्यतीत करें।” मीमांसा दर्शन के अनुसार तो समस्त वैदिक वचन वस्तुतः 'क्रियार्थक' अर्थात् 'कर्म' की प्रेरणा देते हैं । ' वस्तुतः कोई भी प्राणी पूर्ण निष्क्रियनिष्कर्म होकर जीवन-यापन कर ही नहीं सकता।' किन्तु कर्म - दोष से बचते हुए शास्त्रसम्मत सत्कर्म करना श्रेयस्कर होता है। संस्कृत के महान् महाकवि भारवि का नैतिक उपदेशपरक एक प्रसिद्ध श्लोक है 'सहसा विदधीत न क्रियाम्" अर्थात् कोई भी काम सहसा बिना सोचे-समझे, भावोद्रेक में, नहीं करना चाहिए। सोच-समझ कर कार्य करने वाले समझदार व्यक्तियों के लिए दार्शनिक साहित्य में 'प्रेक्षापूर्वकारी' (प्रेक्षा, समझदारी पूर्वक काम करने वाले) शब्द प्रयुक्त होता है। इन्हीं समझदारों में से कुछ लोग एक ही VII
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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