SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. समाहिवर मुत्तमं दिंतु-१ सुखी बनने के लिए आदमी कपड़े पहनता है, मोटर, कार खरीदता है, चुनावों में खड़ा होता है, अपने नाम पर धर्मशाला आदि बनाता है, गरीबों को दान देता है-ये सब एक गृहस्थ को सुखी बनाने के साधन हैं। पर सच्चा सुखी तब बनता है जब वह यह सोचता है सुख संयम, त्याग, स्वास्थ्य, शांति, संतोष, सेवा, विसर्जन धर्म, सत्कर्म और निस्पृहता में है। ऐसा चिंतन उसे सुख से समाधि की दिशा में प्रस्थित करता है. । आरोग्य और बोधि लाभ के पश्चात लोगस्स स्तव में उत्तम समाधि की प्राप्ति की अभिलाषा अभिव्यक्त की गई है। यहाँ एक जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है कि बोधि लाभ के पश्चात ही उत्तम समाधि की अभिलाषा व्यक्त की गई, पहले क्यों नहीं की गई ? यदि रहस्यान्वेषण किया जाये तो समाधान मिलता है कि रत्नत्रय में सम्यक्त्व ही श्रेष्ठ है। इसी को मोक्ष रूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। चार सुख- शय्या में पहली सुख- शय्या निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करना बताया है। जब तक मिथ्या दर्शन शल्य भीतर विद्यमान रहेगा तब तक समाधि की बात या कल्पना निरर्थक है । इसके रहते कभी समाधि नहीं आ सकती। इस अपेक्षा से कहा गया- 'नादंसणिस्स नाणं' - जिसमें दर्शन नहीं, श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं, साक्षात्कार नहीं, उसमें ज्ञान भी नहीं है। जिसमें ज्ञान नहीं है उसमें चारित्र नहीं हो सकता इसकी साक्ष्य है आगम वाणी 'नाणेन बिना न हुंति चवगुणा' । अतः ज्ञान-समाधि, चारित्र - समाधि - ये सब दर्शन के पश्चात होने वाली समाधियां हैं। अतएव दर्शन-समाधि के पश्चात ही उत्तम समाधि की प्राप्ति संभव है । क्योंकि श्रद्धा से वीर्य स्फुरित होता है, पुरुषार्थ फलता है और समाधि निष्पन्न होती है । इस प्रकार लोगस्स स्तव में दर्शन - बोधि के पश्चात जो उत्तम समाधि को प्राप्त करने की अभिलाषा अभिव्यक्त की गई है वह एक विशेष रहस्य व अर्थवत्ता को स्वग्रहित किये हु है । समाहिवर मुत्तमं दिंतु - १ / १७
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy