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________________ लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता नंदी सूत्रकार श्री देववाचक आचार्य ने संघ स्तुति करते हुए सम्यक् दर्शन को सम्यक् दर्शन रूप विशुद्ध मार्ग वाला, संयम का परिकर - रक्षक‍, सम्यक्त्व रूप प्रभा वाला निर्मलचन्द्र और सुमेरुपर्वत की दृढ़ वज्रमय उत्तम और बहुत गहरी आधारशिला नींव ३४ रूप माना है जिस पर कि चारित्र तपादि रूप महान पर्वाधिराज सुदर्शन टिक रहा है। बोधि का संबंध आरोग्य और समाधि से संपृक्त होने के कारण लोगस्स में ‘आरोग्ग बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमं दिंतु' कहकर युगपत् इस त्रिवेणी को प्राप्त करने की भावना व्यक्त की गई है । बोधि लाभ के संदर्भ में लोगस्स की अर्थात्मा एवं स्वरूप चिंतन पर जप और ध्यान की अनेक पद्धतियां प्रचलित हैं । इस साधना से संकल्प शक्ति और मन की शक्ति विकसित होती है । सुप्त शक्तियां भी जागृत होने लगती हैं । अतः इस स्तव का जप उर्जस्विता को बढ़ाता है। इस प्रकार लोगस्स के प्रयोग की दो दिशाएं हो जाती हैं - एक सिद्धि प्राप्त करने की और दूसरी व्यक्ति के आन्तरिक मनोदशा के परिवर्तन की । शरीर की तैजस शक्ति का विकास होने पर वचन सिद्धि, रोग निवारण सिद्धि और इस प्रकार की अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं जो बाह्य लौकिक कष्टों का निवारण करती हैं तथा सहज रूप से भौतिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं । लोकोत्तर मार्ग में यह साधना व्यक्ति को अन्तर्मुखी होने और कषायों को अल्प करने हेतु अन्तःप्रेरणा प्रेरित करती हैं । कषायों के अल्पीकरण हेतु लोगस्स के अनेक विशिष्ट प्रयोग भी हैं जिनका अभ्यास अपेक्षित है । 1 आचारांग सूत्र में विवर्णित "समत्त्वदंशी न करेइ पावं” ३५ सम्यक् दृष्टिकोण वाला व्यक्ति पाप कर्म नहीं करता । इसका तात्पर्य यह है कि जिसका दर्शन सम्यक् हो गया वह विपाक को इस प्रकार भोगता है कि नए सिरे से पाप कर्म का बंध न हो तीव्र, प्रगाढ़ तथा चिकने कर्मों का बंध न हो । जिस प्रकार चक्रवर्तीत्व की दृष्टि से देखें तो भरत और ब्रह्मदत्त दोनों चक्रवर्ती थे, छह खण्ड के राज्याधिकारी थे। दोनों के पास प्रचुर ऐश्वर्य, नौ निधान और चौदह रत्न थे। इस दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं था परंतु शुभ कर्म के विपाक को भोगने में अन्तर था । भरत चक्रवर्ती उसको अनासक्ति के साथ भोग रहा था और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आसक्ति के साथ भोग रहा था। जिसका परिणाम भरत कर्म मुक्त हो गये और ब्रह्मदत्त संसार के जन्म-मरण के कीचड़ में फंस गये । यह अन्तर क्यों ? कारण स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्ती के पास सम्यक् दर्शन था इसलिए उसने शुभ कर्म के उदय को अनासक्ति से भोगा और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पास सम्यक् दर्शन का अभाव था इसलिए उसने शुभ कर्म के विपाक को लोगस्स के संदर्भ में बोधि लाभ की महत्ता / १३
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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