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________________ के रंगों के गुणधर्मी बन जाते हैं। इसी प्रकार शुभ भावना एवं अर्हत भगवन्तों के शुभ स्वरूप का चिंतन करने से मनुष्य के गुण संस्कार बदल जाते हैं। __मुंबई के श्रावक जेठाभाई झवेरी की पुत्री आशा जो एक रेलवे अफसर की पत्नी एक बार अतीन्द्रिय चेतना संपन्न आचार्यश्री महाप्रज्ञजी से उसने कहा-"प्रभो! मैं क्रोध से बहुत पीड़ित हूँ। मेरे कारण घर का वातावरण अशांत रहता है। अब बच्चों में भी चिड़चिड़ापन आना प्रारंभ हो गया है। अब मैं इस पिशाच से मुक्ति पाना चाहती हूँ। कोई उपाय बतायें? __ आचार्य प्रवर ने उसको ललाट के मध्य पूर्ण चन्द्रमा का ध्यान करने का निर्देश देते हुए कहा-तीन माह तक यह प्रयोग करो। गुस्सा कम हो जायेगा। इसी स्थान पर श्वेत रंग में लोगस्स के "चंदेसु निम्मलयरा" पद का ध्यान भी आवेश उपशांति का महत्तम प्रयोग है। आशा बहन ने पूर्ण अध्यवसाय के साथ इस प्रयोग में सफलता प्राप्त की। दूसरी बार जब वह आचार्य प्रवर के दर्शन करने आई तो मन अतीव प्रसन्न था। उसने कहा-“महाराज मेरा क्रोध पर्याप्त मात्रा में शांत हो गया है। घर का वातावरण भी धीरे-धीरे मोड़ ले रहा है। महाराज! मैं एक विचित्र बात आपको बताऊं। मेरे पति खाने के शौकीन हैं। मैं उन्हें संतष्ट करने के लिए सदैव तत्पर रहती हूँ। अनेक प्रकार के व्यंजन बनाती हूँ पर वे कभी प्रसन्न नहीं होते। रोज भोजन की निंदा करते, कहते आशा! तुम भोजन बनाना नहीं जानती। आज तक तुमने कभी स्वादिष्ट भोजन नहीं खिलाया। मैं परेशान थी। अभी कुछ दिन पूर्व उन्होंने कहा-आशा क्या हो गया? आज कल तुम जो कुछ बनाती हो, वह मुझे बहुत स्वादिष्ट लगता है। अच्छा भोजन बनाती हो। क्या इन दिनों में तुमने पाक -शास्त्र का अध्ययन किया है? महाराज! इसका कारण मैं आज तक नहीं समझ सकी।" आचार्य प्रवर ने कहा-“आशा बहन! पहले तुम भोजन के साथ-साथ क्रोध के परमाणु भी परोसती थी। क्रोध के परमाणु कड़वे होते हैं। अब तुम क्रोध से छुटकारा पा चुकी हो। अब तुम जो कुछ परोसती हो उसके साथ करुणा के परमाणु परोसती हो। करुणा के परमाणु मीठे होते हैं।" हमारे चित्त से निस्सृत भाव तरंगों का जो प्रभाव होता है उसे हम समझ नहीं पाते। जयाचार्य ने तीर्थंकर वासुपूज्य की स्तुति में कहा है-"प्रभो! आप करुणा के सागर हैं, आपकी करुणा ने क्रोध के स्रोत को ही सुखा डाला है"। क्रोध के क्षय हुए बिना वीतराग भाव की प्राप्ति असंभव है। वीतराग होने का अर्थ है-चेतना की सूक्ष्म भूमिका में प्रविष्ट हो जाना। वीतराग महापुरुषों की स्तुति एकाग्रता के उत्कृष्ट बिंदु अभेद दृष्टि का स्पर्श करती हुई साधक को अवचेतन से परे अतीन्द्रिय चेतना तक पहुँचाने में समर्थ है। ५४ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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