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________________ आचार्यश्री तुलसी की ये पंक्तियां-“प्रभु बनकर के ही हम प्रभु की पूजा कर सकते हैं", अद्वैत साधना की पुष्टि में पर्याप्त है। कबीरजी ने बहुत यथार्थ कहा है जब मैं था हरि नहीं, अब हरि है मैं नहीं। ___ सब अंधियारा मिटी गया, जब दीपक देख्या मांहि ॥ ७. शरणागति शरण का अर्थ है-तदरूप हो जाना, तन्मय हो जाना और द्वैत से अद्वैत साध लेना। बिना शरण के कोई भी व्यक्ति महायात्रा के महापथ का पार नहीं पा सकता। कवि की निम्नोक्त पंक्तियों में शरणागति का रहस्य भरा है अस्थि चर्म मम देह, यह तामे ऐसी प्रीति। होती जो श्री राम में, तो मिटती भव भीति ॥ पंच परमेष्ठी का ध्यान सब पापों का नाश करने वाला है। अर्हत् मंगल होते हैं। स्तुति भी अपने आप में मंगल है। “अरहते सरणं पवज्जामि"-यह आर्ष वाक्य जहाँ एक ओर अरिहंतो की शरण का प्रतिनिधि तत्त्व है वहाँ निश्चय नय की दृष्टि से आत्म-स्वरूप की ही अभिन्नतम उपासना है। 'अप्पा सो परमप्पा" इस सूक्त में शरणागत एवं पुरुषार्थ का अपूर्व संगम है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि आत्म-विश्वास और समर्पण शक्ति का उत्स है। एकाग्रता शक्ति का कोष है। विश्वास बढ़े, एकाग्रता और समर्पण बढ़े तो विकास का मार्ग खुलता है। स्तुति का मनोवैज्ञानिक आधार स्तुति मनुष्य के मन की समस्त विशृंखलित एवं अनेक दिशाओं में भटकने वाली वृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है, जिसमें हृदय पक्ष की प्रधानता होती है। मनोविज्ञान ने चौदह प्रकार की मूल प्रवृत्तियां और उससे संबंधित चौदह मनः संवेग माने हैं। मूल प्रवृत्ति की परिभाषा करते हुए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मेगडूगल ने लिखा है-मूल प्रवृत्ति वह प्रगति शक्ति है जिसके कारण प्राणी किसी विशेष पदार्थ की ओर ध्यान देते हैं और उसकी उपस्थिति में विशेष प्रकार के संवेग या मनःक्षोभ का अनुभव करते हैं। मनोविज्ञान ने मन के तीन स्तरों की खोज की है१. चेतन मन २. अचेतन मन ३. अवचेतन मन ५० / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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