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________________ ४. शक्र स्तुति : स्वरूप मीमांसा तीर्थंकर देव निर्मित एक हजार पंखुडी वाले स्वर्ण कमल पर पदन्यास करते हुए विचरण करते हैं। उनके चरणों के नख खिले हुए नवीन स्वर्ण कमलों के समूह की कांति के समान चमकदार होते हैं। उनके चरणों के नखों में एक अपूर्व आभा होती है। सभी तीर्थंकरों के यह अतिशय होता है। यह अतिशय तीर्थंकरों के पूर्व जन्म की तपस्या का फल है। उस महातपस्या के फलस्वरूप सब प्रकार की कामनाओं से रहित होने पर भी वह वैभव भगवान के चरणों में लौटता है। ऐसे तीर्थंकर देवों को हमारा बार-बार नमस्कार हो। पाठ जैन सिद्धान्तानुसार अर्हत भगवन्तों के जन्म कल्याणक के समय प्रथम स्वर्ग का इन्द्र शक्रेन्द्र इस स्तुति के द्वारा अर्हतों की माता को प्रणाम करता हुआ अर्हतों का गुणानुकीर्तन करता है, अतएव यह स्तवन जैन वाङ्मय में शक्र स्तुति (शक्कत्थुई) के नाम से विश्रुत है। सक्कत्थुई अर्थ नमोत्थुणं नमस्कार हो अरहंताणं अर्हत् भगवंताणं भगवान आइगराणं धर्म के आदिकर्ता तित्थयराणं तीर्थंकर सहसंबुद्धाणं स्वयंसबुद्ध पुरिसोत्तमाणं पुरुषोत्तम पुरिससीहाणं पुरुषसिंह । पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरुषों में प्रवर पुंडरीक ३४ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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