SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो ताला सैंकड़ों प्रयत्न करने पर भी नहीं खुलता वही ताला सही चाबी लगने से आसानी से खुल जाता है। स्तुति में भी तन्मयता आने से आत्मा के अनंत शक्तिस्रोतों के उद्घाटन में संदेह को कोई अवकाश नहीं रहता। आचारांग में , अर्हत् के साथ तादात्म्य स्थापित होने के निम्नोक्त पांच कारण उपलब्ध हैं१. उनकी दृष्टि २. उनका स्वरूप ज्ञान ३. उनका आगमन ४. उनकी चैतसिक अनुभूति ५. उनका सान्निध्य यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि अर्हत् परमात्मा को “तिरागद्वेषमोहाः" विशेषण से संबोधा गया है, जब परमात्मा राग-द्वेष से मुक्त है तब उनकी स्तुति से लाभ ही क्या? राग न होने के कारण वे अपने किसी भी भक्त पर अनुग्रह नहीं करेंगे और द्वेष न होने के कारण वे किसी भी दुष्ट का निग्रह करने के लिए भी प्रेरित नहीं होंगे। क्योंकि अनुग्रह-निग्रह में प्रवृत्ति तो राग-द्वेष की प्रेरणा से ही होती है। जो शिष्टों पर अनुग्रह और दुष्टों पर निग्रह करता है, उसमें राग या द्वेष का अस्तित्व जरूर होता है। किन्तु जैन इस प्रकार के किसी ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। इस जिज्ञासा का समाधान जैन ग्रंथों में जो दिया गया है वह बड़ा ही मनोग्राही, तर्क संगत एवं आकर्षक है। आचार्य समंतभद्र के स्वयंभू स्तोत्र में तीर्थंकर वासुपूज्य की स्तवना से इस जिज्ञासा का समाधान प्राप्त किया जा सकता ___ न पूज्यार्थस्त्वयिवीतरागे, न निन्दयानाद विवान्तवैरे। __ तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेतो दुरितां जनेभ्यः॥ अर्थात् हे नाथ! आप तो वीतराग हैं। आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं। आप न अपनी पूजा करने वालों से खुश होते हैं और न ही निंदा करने वालों से नाखुश। क्योंकि आपने तो वैर का पूरी तरह वमन कर दिया है, तो भी यह निश्चित है कि आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पाप रूप कलंक से हटाकर पवित्र बना देता है। इसका आशय यह है कि परमात्मा यद्यपि स्वयं कुछ भी नहीं करता फिर भी उनके निमित्त से आत्मा में जो शुभोपयोग उत्पन्न हो जाता है उसी से उसके पाप का क्षय और निर्जरा के साथ पुण्य का बंध हो जाता है। तथ्य यह कि भौतिक सुविधाओं तथा ऋद्धि, सिद्धि व समृद्धि का उपलब्ध २६ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy