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________________ (१) ज्ञान वृद्धि (२) दर्शन विशुद्ध ( क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति) (३) अशुभ कर्मों के बंध में रुकावट (४) शुभ कर्मों का बंध (५) अशुभ कर्मों की निर्जरा । संक्षेप में कहा जा सकता है कि स्तुति स्तोता को बहिरात्मा से अंतरात्मा, अंतरात्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा तक की भूमिका को प्राप्त कराने का माध्यम है। इसी तथ्य को वर्तमान संदर्भ में इस प्रकार समझा जा सकता है कि क्षायिक सम्यक्-दर्शन की प्राप्ति होने पर स्तोता का 'आई-क्यू', 'इ-क्यू' में परिवर्तित होकर 'एस-क्यू' में प्रवेश करने लगता है । अथवा धीरे-धीरे भाव शुद्धि करता हुआ स्तोता निर्ग्रथ हो क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है । अंत में केवल ज्ञान, केवल-दर्शन अथवा अरिहंत पद को प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बन जाता है । जब तक स्तोता को यह मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य सिद्ध नहीं होता तब तक वह वीर्याचार से प्रत्येक पर्याय-व्यवहार को शुद्ध बनाता हुआ, उत्तमोत्तम भाव - धारा में रमण करता हुआ, दुर्गम राहों को सरलता से तय करता हुआ, भवोभव में अधिक सामर्थ्यवान पुण्योपार्जन करता हुआ, श्रेष्ठ गुण श्रेणी तय करता हुआ मुक्ति के उत्तुंग शिखर का आरोहण करता है । अतः स्तुति में प्रयुक्त 'मंगल' शब्द की उपयुज्यता असंदिग्ध है 1 स्तुति के प्रकार भारतीय संस्कृति में स्तुति के विविध रूप दृष्टिगोचर हैं । (१) द्रव्य स्तुति (२) भाव स्तुति प्रमाण रूप Xx (४) गुणोत्कीर्तन रूप स्तुति याचना रूप स्तुति यदि कामना की दृष्टि से इनका वर्गीकरण किया जाए तो इन सबका समावेश दो विभागों में हो सकता है (१) सकाम स्तुति (२) निष्काम स्तुति । अध्यात्म, स्तवन और भारतीय वाङ्मय - २ / १५
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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