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________________ उत्तम दिंतु अब “आरोग्ग बोहिलाभ' समाहिवरमुत्तमं दितु" इस पंक्ति में उपरोक्त आठ कर्मों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता हैआ - आयुष्य-कर्म रोग्ग (रुग्ण) - वेदनीय-कर्म बोहि-जागना व जगाना - दर्शनावरणीय व ज्ञानावरणीय-कर्म लाभं - अन्तराय-कर्म समाहि - मोहनीय-कर्म वरं - नाम-कर्म - गौत्र-कर्म - ये आठों कर्म क्षय होंवे-ऐसी शक्ति समाधि ___ मुझे प्रदान करें। इस प्रकार कर्मों को क्षीण करने की शक्ति को साधक साधना द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ प्राप्त करता है और आत्म-विकास (गुणस्थानों) की भूमिका में आरोहण करता हुआ जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। ___ जैन दर्शनानुसार मोक्ष का अर्थ है-समस्त कर्मों से मुक्ति। इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों का समावेश है। क्योंकि हथकड़ियाँ चाहे सोने की हों या लोहे की व्यक्ति को बंधन युक्त रखती हैं। उसी प्रकार जीव को शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म बंधन में रखते हैं। सिद्धान्ततः जीव एक द्रव्य है। द्रव्य लोक के अग्रभाग में स्वतः पहुँच जाता है। दीपक की लौ का स्वभाव ऊपर जाना है वैसे ही आत्मा का स्वभाव भी ऊपर जाना है। कर्म के कारण उसमें भारीपन आता है परंतु कर्म मुक्त होते ही स्वाभाविक रूप से आत्मा की उर्ध्वगति होती है। जब तक कर्म पूर्णरूप से क्षय को प्राप्त नहीं होते हैं तब तक आत्मा का शुद्ध स्वभाव उसी प्रकार छिपा रहता है जिस प्रकार बादलों में सूर्य । बादलों के हटते ही जैसे सूर्य पुनः अपने प्रकाश के साथ चमकने लगता है वैसे आत्मा से कर्मों का आवरण हटते ही आत्मा अपने शुभ स्वभाव में चमकने लगती है। सूर्य पर तो कदाचित् पुनः बादल आ सकता है पर आत्मा एक बार कर्म मुक्त होने पर पुनः कर्मों से आवृत्त नहीं होता। मंत्रजप, ध्यान, स्तवन आदि का लाभ मानसिक ओजस्विता, बौद्धिक प्रखरता, आत्मिक वर्चस्व के रूप में तो मिलता ही है परन्तु आरोग्य प्राप्ति, आयु वृद्धि, विपत्ति निवारण जैसी अगणित भौतिक उपलब्धियां भी इसकी देन हैं। जैन साधकों के सम्मुख निम्नोक्त लब्धियों-योगज विभूतियों का बहुत मूल्य रहा है - १६८ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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