SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५. लोगस्स : रोगोपशमन की एक प्रक्रिया सही दृष्टिकोण और आत्मसंयम, आत्मा के ये दो ऐसे दुर्लभ गुण हैं, जिनकी प्राप्ति से अपने मूल स्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है। निश्चयनयानुसार आत्मा शुद्ध, बुद्ध और आनंदमय तत्त्व है। क्रोध आदि उसके विभाग हैं, जो आत्मा को विकृत बनाते हैं। आत्मा को विभाव से स्वभाव की दिशा में उठोरित रखने हेतु लोगस्स की स्तुति में कहा गया है-किर्तित, वंदित मेरे द्वारा लोक में जो ये उत्तम सिद्ध हैं वे मुझे आरोग्य, बोधि लाभ और श्रेष्ठ उत्तम समाधि दें। मानव शरीर एवं मस्तिष्क में विद्यमान शक्तियों को ध्यान साधना द्वारा विकसित किया जा सकता है। इस साधना के द्वारा ही सम्यक् ज्ञान, सम्यक्, दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं आनंद के द्वार उद्घाटित होते हैं। बाहरी जगत् की संपदाएँ हमें सुविधा संपन्न बना सकती हैं पर शांति संपन्न नहीं। स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सुयश, शक्ति और संपत्ति-इन पांच सकारों की प्राप्ति हेतु मानव दौड़ता है परंतु क्या मन की शांति के बिना ये वस्तुएँ सुख दे सकती हैं? इन भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होने वाला सुख अवास्तविक है इसलिए बाह्य जगत् की अपेक्षा अन्तर्जगत् की संपन्नता ही वास्तविक शांति दे सकती है। वह संपन्नता है व्यक्ति के चैतन्य की प्रभुसत्ता का विकास। आध्यात्मिक विकास का रहस्य व्यवहारिक जगत् में देखा जा रहा है कि कुछ व्यक्ति धुरन्धर विद्वान एवं भौतिक संपदा से संपन्न होने के बावजूद भी अशांत नजर आते हैं उनके पास अपनी समस्याओं का सही समाधान नहीं है। कई बार ऐसा सुनने में या पढ़ने में आता है कि एक वैज्ञानिक या बौद्धिक व्यक्ति ने आत्महत्या कर अपने प्रखर बौद्धिक जीवन की लीला को समाप्त कर दिया। हर एक समझदार व्यक्ति के मन में प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों? समाधान के रूप में कहा जा सकता है कि उनमें लोगस्स : रोगोपशमन की एक प्रक्रिया / १६१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy