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________________ १४. तित्थयरा में पसीयंतु तीर्थंकरों की कुछ भावनात्मक विलक्षणताएं भी होती हैं। उनके पवित्र आभामंडल का । संस्पर्श पाकर मानव के संशय विच्छिन्न हो जाते हैं। विष अमृत में बदल जाता है। चेतना के रूपान्तरण की दृष्टि से भी वह समय बहुत अनुकूल होता है। जन्म से ही वे वैशिष्ट्य और महिमा बोधक चिह्नों से सम्पन्न होते हैं। जिसका कारण तीर्थंकर नाम कर्म का उदय माना गया है। यह त्रिकाल बाधिक सत्य है कि तीर्थंकर अभय के मंत्रदाता होते हैं। उनकी उपस्थिति में प्राणी जगत् अभय के अभयारण्य में मुक्त विहार करता है। उनके अतिशय के प्रभाव के कारण उनकी उपस्थिति में प्राकृतिक वातावरण बहुत ही पवित्र और निर्मल रहता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार उनकी निर्मल देह से परम अहिंसा और शांतिप्रद अल्फा तरंगें निस्सृत होती रहती हैं, जिनका ऐसा चामत्कारिक प्रभाव होता है कि पूर्वबद्ध जन्म-मरण के जातिगत (स्वभाव से ही) शत्रु भी परस्पर सन्निकट बैठकर प्रशांत चित्त से अर्हत् वाणी/दिव्य ध्वनि अर्थात् धर्मदेशना को सुनते हैं। सर्प-नकूल, मूषक-बिलाव, सिंह-मृग. आदि सभी पशु और परस्पर कट्टर मानव, देव-दानव, सुर-असुर मित्रवत् व्यवहार करते हैं। यहां तक कि अरिहंत के सान्निध्य में बैठने वालों के रोग, आतंक आदि भी उपशमित हो जाते हैं। जैसा कि समवायांग में कहा गया है-पुब्बबद्ध वेरात्ति...अरहओ पायमूले पसंतचित्त मणसा धम्म निसामंति। तीर्थंकरों की कुछ भावनात्मक विलक्षणताएं भी होती हैं। उनके पवित्र आभामंडल का संस्पर्श पाकर मानव के संशय विच्छिन्न हो जाते हैं। विष अमृत में बदल जाता है। चेतना के रूपान्तर की दृष्टि से भी वह समय बहुत अनुकूल होता है। जन्म से ही वे वैशिष्ट्य और महिमा-बोधक चिह्न से संपन्न होते हैं जिसका कारण तीर्थंकर नाम कर्म का उदय माना गया है। उनके नाम और गोत्र * देखें परिशिष्ट १/४ १७८ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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