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________________ स्वामिन् सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, _ मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः। येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥ अर्थात् स्वामिन! मैं जानता हूँ कि देवताओं के द्वारा यह तुम्हारे सनिकट क्षेत्र में बीजे जाते हुए पवित्र चामर-समूह ऐसा संकेत दे रहे हैं, कि इस महान् मुनिपुङ्गव को नमस्कार करने वाले पुरुष निश्चय ही विशुद्ध भावों को प्राप्त कर उर्ध्वगति करने वाले हैं, अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। २. आन्तरिक वैभव की स्तुति आन्तरिक वैभव की स्तुति में अर्हत् भगवान के अतुल पराक्रम, क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा अव्याबाध सुख आदि गुणों का कीर्तन किया जाता है। यथा, प्रभो! आपकी जय हो, आप परिषहों एवं उपसर्गों में, भयंकर तूफान में भी सुमेरू की भांति अचल रहते हैं। मनुष्य तो क्या देव भी और सारा विश्व मिलकर भी आपको चलायमान नहीं कर सकता। जयाचार्य ने अर्हत् अर की स्तुति में कहा वारू रे जिनेश्वर रूप अनुपम, तू सुगण-सिरताज। मोनै बाल्हा लागै छै जी, अर जिनराज ॥ __ अर्थात् “प्रभो! तुम्हारा आन्तरिक रूप अनुपम है, तुम गुणि जन के सिरताज हो। यह आन्तरिक वैभव की स्तुति का छोटा-सा नमूना है। .. ___ लोगस्स का अन्तिम पद्य-‘चंदेसु...दिसंतु' यह पद्य भी आन्तरिक वैभव की स्तुति का है। लोगस्स के प्रथम पद्य में उपर्युक्त दोनों प्रकार की स्तुतियों में कीर्तन के माध्यम से अर्हत् भगवन्तों का गुणोत्कीर्तन करने के पश्चात दूसरे से चौथे पद्य तक इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों का नाम निर्देश करके उनका उत्कीर्तन किया गया है, जो “उसभ मजियं से प्रारंभ होकर पासं तह वद्धमाणं च" तक परिसंपन्न होता है। चौबीस तीर्थंकर इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम कुलकर नाभि की पत्नी मरुदेवा से उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ऋषभ का जन्म हुआ। वे पूर्व भव में वज्रनाभ नाम के राजा नाम स्मरण की महत्ता / १६१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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