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________________ इसके समर्थन में वृत्तिकार ने 'नमस्तीर्थाय' इस वाक्य को उधृत किया है। तीर्थ का अर्थश्रुत है उसका आधार होने के कारण संघ भी तीर्थ कहलाता है ।" अर्हत् सिद्धों को नमस्कार करते हैं इसका समर्थन आचार चूला से होता है ।" अर्हत् तीर्थ को नमस्कार करते हैं यह आगम द्वारा समर्थित नहीं है । आगम युग के बाद की अवधारणा है। वृत्तिकार ने इसके प्रमुख तीन प्रयोजन प्रस्तुत किये हैं तीर्थ के कारण ही तीर्थंकर कहलाते हैं । १. २. पूजित पूजा - अर्हत् स्वयं पूजनीय होते हैं । उनके द्वारा तीर्थ की पूजा होने तीर्थ की प्रभावना वृद्धिंगत होती है । ३. धर्म का मूल विनय - इसकी प्रस्थापना होती है । इस सारे विश्लेषण के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि निम्नोक्त तीर्थंकर - महिमा के महनीय गुणों के कारण “धम्मतित्थयरे" संबोधन की सार्थकता स्वयं सिद्ध है • जन्म संबंधी अतिशय वाक् अतिशय • पूजा अतिशय महाप्रातिहार्य समवसरण में देशना क्षत्रिय कुलोत्पन्न राजा महाराजाओं को दीक्षा अमित बलवीर्य अमित सौन्दर्य प्रवचन दिव्यता देवों द्वारा अर्चित नाम और गोत्र एकान्त शुभ विशिष्ट शिष्य संपदा २. जिणे तीर्थंकरों की परम्परा अनादिकालीन है । ऋषभादि तीर्थंकरों की शरीर संपदा और भगवान महावीर की शरीर संपदा में अत्यन्त वैलक्षण्य होने पर भी सभी के धृति, शक्ति और शरीर रचना का विस्तार किया जाये तथा उनकी आन्तरिक योग्यता - केवलज्ञान का विचार किया जाये तो उन सभी की योग्यता में कोई भेद १४६ / लोगस्स - एक साधना - १
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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