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________________ विशेषता को विश्लेषित करने के पश्चात् इस अध्याय में शेष चार विशेषणों को चुंबक रूप में समझाने का प्रयास किया गया है जो निम्न हैं१. धम्मतित्थयरे २. जिणे ३. अरहते ४. केवली १. धम्मतित्थयरे-धर्मतीर्थ के कर्ता/संस्थापक जगत् में जो परिवर्तन होता है, उसे हम काल के माध्यम से जानते हैं। प्रत्येक काल के प्रथम चक्रवर्ती व प्रथम तीर्थंकर तीसरे आरे में और शेष तेईस तीर्थंकर तथा ग्यारह चक्रवर्ती चौथे आरे में होते हैं। इसे समझने के लिए काल-चक्र को समझना जरूरी है। प्रत्येक काल-चक्र बीस कोटाकोटि सागरोपम का होता है। काल परिवर्तन का सूचक है। काल के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता। यह परिवर्तन की सूचना करने वाला प्रतीक चक्र है। इस अपेक्षा से काल को चक्र के रूप में चित्रित किया जाता है। जैन दर्शनानुसार काल एक स्वतंत्र द्रव्य है। काल को समझने हेतु उसके अनेक विभाग किये गये हैं। उसका सबसे सूक्ष्म विभाग है समय। समय से अधिक जो कालमान है उसे हम पल, घड़ी, घंटा आदि व्यावहारिक काल के रूप में जानते हैं। काल एक अमूर्त द्रव्य है। वस्तुओं के परिणाम तथा क्रिया के द्वारा व्यवहार काल का ज्ञान होता है। व्यवहार काल कभी उन्नति की ओर तो कभी अवनति की ओर सदा परिणमनशील रहता है। काल की पतनोन्मुखी गति को अवसर्पिणी काल और विकासोन्मुखी गति को उत्सर्पिणी काल कहा जाता है। अवसर्पिणी काल में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, संहनन, संस्थान, आयु, शरीर तथा सुख आदि पर्यायों की क्रमशः अवनति तथा उत्सर्पिणी काल में इनमें विकास देखा जाता है। प्रत्येक व्यवहार काल के छह विभाग होते हैं१. सुषम-सुषमा २. सुषमा ३. सुषम-दुषमा ४. दुषम-सुषमा ५. दुषमा ६. दुषम-दुषमा इस अवसर्पिणी काल के सुषम-दुषमा नामक तीसरे काल विभाग में धर्म लोगस्स एक धर्मचक्र-२ / १४१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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