SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. आपका अनंत ज्योतिर्मय मुख अपूर्व चन्द्रबिंब के रूप में विश्व को आलोकित करता हुआ चमकता है। क्योंकि चन्द्रमा तो केवल रात्रि में ही उदित होता है पर आपका मुख चंद्र सदैव उदयमान रहता है, कभी भी अस्त नहीं होता। २. चन्द्रमा साधारण अंधकार का नाश करता है किंतु आपका मुख चंद्र अज्ञान तथा मोहनीय कर्म रूप महा अंधकार को नष्ट करता है। ३. चंद्रमा को राहु ग्रसता है, बादल छिपा लेता है परन्तु आपके मुख चंद्र को ढकने वाला कोई नहीं है। ४. चंद्रमा पृथ्वी के कुछ भागों को प्रकाशित करता है परंतु आपका मुख तीनों जगत् को प्रकाशित करता है। ५. चंद्रमा अल्पकांति युक्त है किंतु आपके मुख की कांति अनंत है। केवल ज्ञान रूपी आलोक से सम्पूर्ण लोकालोक के प्रकाशक होने के कारण अरिहंत व सिद्ध भगवन्तों को सूर्य से अधिक प्रकाशक कहा है, इसी तथ्य की पुष्टि में आचार्य मानतुंग की निम्नोक्त पंक्तिया विमर्शनीय हैं१५- . १. सूर्य संध्या को अस्त हो जाता है पर आपका केवलज्ञान रूप सूर्य तो सदैव प्रकाश देता रहता है, कभी अस्त नहीं होता। २. सूर्य एक जम्बुद्वीप को ही प्रकाशित करता है वह भी क्रम से परन्तु आप तो तत्काल एक ही समय में तीनों जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। ३. सूर्य को राहु ग्रहण लगता है परन्तु आपको तो किसी भी प्रकार का दुष्कृत प्राप्त नहीं होता। ४. सूर्य के प्रताप को तो एक साधारण मेघ भी आच्छादित कर देता है पर आपका महाप्रताप ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मों से रहित है। इस प्रकार के मुनिवर! आप सूर्य से भी बड़े सूर्य हैं। सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ___लोगस्स के इस अंतिम चरण में सिद्धि प्राप्ति की भावना अभिव्यक्त की गई है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी कहते हैं-भिखारी बनकर प्रभु की प्रार्थना नहीं की जा सकती।१६ आचार्यश्री तुलसी ने भी एक गीत में कहा है-“प्रभु बनकर के ही हम प्रभु की पूजा कर सकते हैं।" वैदिक साहित्य भी इसका साक्षी है-“देवोभूत्वा देवं यजेत्”-देवता होकर ही देवता की पूजा करो। 'चंदेसु......दिसंतु'-सिद्धि प्राप्ति का यह मंत्र है। जो व्यक्ति चन्द्रमा जैसी निर्मलता, सूर्य जैसी तेजस्विता और सागर जैसी गंभीरता को प्राप्त नहीं करता उसको सिद्धि नहीं मिल सकती। सिद्धि उसे ८६ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy