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________________ अवश्य करणीय कर्त्तव्य । आवश्यक के संबंध में आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का मंतव्य है - "यह अध्यात्म विशुद्धि का प्रयोग, जागरूकता का दिशा सूचक यंत्र, आत्म निरीक्षण का अध्यादेश और विघ्ननिवारण का महामंत्र है। आचार्यश्री तुलसी ने इसे ध्रुवयोग के अन्तर्गत माना है ।" आवश्यक सूत्र के छह अंग निम्न प्रकार से हैं-१. सामायिक समभाव की साधना चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति सद्गुरुओं को नमस्कार एवं उनका गुणगान (स्तुति) २. चतुर्विंशति स्तव ३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान - - २. चतुर्विंशतिस्तव ३. लोगस्स - - - दोषों की आलोचना शरीर के प्रति ममत्व का त्याग आहार आदि का प्रत्याख्यान (त्याग) अनुयोगद्वार में आवश्यक के छह नाम निम्न प्रकार से उल्लिखित हैं ( सामायिक) १. सावद्य योग विरति २. उत्कीर्तन ( चतुर्विंशतिस्तव) (गुण उपासना अथवा वंदना ) (प्रतिक्रमण - पिछले पापों की आलोचना ) ३. गुणवत् प्रतिपत्ति ४. स्खलित निंदना ५. चिकित्सा व्रण ६. गुण धारण ( कायोत्सर्ग - ध्यान, शरीर से ममत्त्व त्याग ) (प्रत्याख्यान - आगे के लिए त्याग, नियम ग्रहण आदि) उपरोक्त विवेचन के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि दूसरे आवश्यक के दो नाम दो आगमों में उपलब्ध हैं । आवश्यक सूत्र में 'चउवीसत्थव सुत्तं ' ( चतुर्विंशति स्तव) और अनुयोग द्वार में 'उक्कित्तणं' (उत्कीर्तन ) । उक्कित्तणं और चतुर्विंशति - स्तव - ये दो नाम तीर्थंकरों के गुणानुवाद को आधार मानकर ही रखे गये हैं। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि तेइसवें तीर्थंकर तक इस स्तुति का नाम 'उक्कित्तणं' और चौबीसवें तीर्थंकर के समय चौबीसी पूर्ण होने से 'चतुर्विंशति - स्तव' कहलाता है। आम बोलचाल की भाषा में इसे 'लोगस्स' का पाठ भी कहते हैं । इस प्रकार 'लोगस्स' के तीन नाम उपलब्ध एवं प्रचलित हैं १. उक्कित्तणं १. उक्कित्तणं उत्कीर्तन का सामान्य अर्थ गुणगान या प्रशंसा के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इस आवश्यक में किसी सामान्य पुरुष के गुणगान या प्रशंसा न करके उन महापुरुषों के गुणगान या प्रशंसा की गई है जिन्होंने रागादि आत्म-रिपुओं को लोगस्स एक विमर्श / ८१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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