SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १३ : उ. ६ : सू. १०२-१०७ व्यंजन गुणों से उपपेत, मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग सुंदर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकार वाला, कांत, प्रिय दर्शन, सुरूप और प्रतिरूप था। वह अभीची कुमार युवराज भी था - उद्रायण राजा के राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर की स्वयं प्रत्युपेक्षणा ( निरीक्षण) करता हुआ विहरण कर रहा था। उस उद्रायण राजा का अपना भागिनेय केशी नाम का कुमार था - सुकुमाल हाथ-पैर वाला यावत् सुरूप । वह उद्रायण राजा सिन्धु सौवीर आदि सोलह जनपद, वीतीभय नगर आदि तीन सौ तेसठ नगर आकर का, छत्र, चामर, बाल-वीजन आदि प्रदत्त करने वाले महासेन आदि दस मुकुटबद्ध राजों का अन्य बहुत राजे, युवराज, कोटवाल, मडंब-पति, कुटुम्ब - पति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषण) तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्व करता हुआ, अन्य से आज्ञा का पालन करवाता हुआ वह श्रमणोपासक जीव- अजीव को जानने वाला यावत् (भ. ३ / ९४) यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ रह रहा था । १०३. वह उद्रायण राजा किसी दिन जहां पौषधशाला थी, वहां आया। शंख श्रावक की भांति यावत् (भ. १२/६) मैं उपवास करूं, ब्रह्मचारी रहूं, सुवर्ण मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित, शस्त्र, मूसल आदि का वर्जन कर, अकेला, दूसरों के साहाय्य से निरपेक्ष, दर्भ-संस्तारक पर बैठ कर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करूं । १०४. उस उद्रायण राजा के पूर्वरात्र - अपररात्र काल में धर्मजागरणा करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - धन्य हैं वे ग्राम, आकर, नगर निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संबाध, सन्निवेश, जहां श्रमण भगवान् महावीर विहरण कर रहे हैं । धन्य हैं वे राजे, युवराज, कोटवाल, मडम्ब - पति, कुटुम्ब पति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि, जो श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं । यदि श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए इस नगर में आएं, इस नगर में समवसृत हों, इसी वीतीभय नगर के बाहर मृगवन उद्यान में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार करूं यावत् पर्युपासना करूं । १०५. श्रमण भगवान् महावीर ने उद्रायण राजा के इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - ऐसा जानकर चंपा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां सिंधु - सौवीर जनपद है, जहां वीतीभय नगर है, जहां मृगवन उद्यान है, वहां आए, वहां आकर यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे । १०६. उस वीतीभय नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी । १०७. उद्रायण राजा इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को ५१०
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy