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________________ श. १३ : उ. २ : सू. ३४-३९ भगवती सूत्र -उपयुक्त, अनंतर-उपपन्नक, अनंतर-अवगाढक, अनंतर-आहारक और अनंतर-पर्याप्तक-ये जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय प्रज्ञप्त हैं, शेष में असंख्येय की वक्तव्यता। आरण-अच्युत पूर्ववत् आनत-प्राणत की भांति वक्तव्य हैं, विमानों में नानात्व की वक्तव्यता। इसी प्रकार ग्रैवेयक की भी वक्तव्यता। ३५. भंते! अनुत्तरविमान कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! पांच अनुत्तरविमान प्रज्ञप्त हैं। भंते! क्या वे संख्येय-विस्तृत हैं? असंख्येय-विस्तृत हैं? गौतम! संख्येय-विस्तृत भी है, असंख्येय विस्तृत भी हैं। ३६. भंते! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्येय-विस्तृत विमानों में एक समय में कितने अनुत्तरोपपातिक उपपन्न होते हैं? कितने शुक्ललेश्या वाले उपपन्न होते हैं-पृच्छा पूर्ववत्। गौतम! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्येय-विस्तृत अनुत्तरविमान में एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अनुत्तरोपपातिक उपपन्न होते हैं, इसी प्रकार-संख्येय-विस्तृत ग्रैवेयक विमानों की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-कृष्णपाक्षिक, अभवसिद्धिक, तीन अज्ञान वाले न उपपन्न होते हैं, न च्यवन करते हैं, न ही वहां सत्ता की वक्तव्यता है, अचरम को छोड़कर यावत् संख्येय चरम प्रज्ञप्त हैं, शेष पूर्ववत्। असंख्येय-विस्तृत में भी इनकी वक्तव्यता नहीं है। इतना विशेष है-अचरम-भव वाले होते हैं, शेष असंख्येय-विस्तृत ग्रैवेयक-विमानों में यावत् असंख्येय अचरम-भव वाले प्रज्ञप्त हैं। ३७. भंते! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्येय-विस्तृत असुरकुमारावासों में क्या सम्यग्-दृष्टि असुरकुमार उपपन्न होते हैं? क्या मिथ्या-दृष्टि असुरकुमार उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा में तीन आलापक कहे गये हैं, वैसे ही वक्तव्य हैं। इसी प्रकार असंख्येय-विस्तृत असुरकुमारावासों में तीनो गमक वक्तव्य हैं, इसी प्रकार यावत् ग्रैवेयक-विमानों की वक्तव्यता। इसी प्रकार अनुत्तर-विमानों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-तीनों आलापकों में मिथ्या-दृष्टि, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि वक्तव्य नहीं हैं, शेष पूर्ववत्। ३८. भंते! वे कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या यावत् शुक्ल-लेश्या वाले होकर कृष्ण-लेश्या वाले देवों में उपपन्न होते हैं? हां गौतम! इसी प्रकार प्रथम उद्देशक (भ. १३/१८-२२) नैरयिकों की भांति वक्तव्य है। नील-लेश्या वाले भी नैरयिकों की भांति वक्तव्य हैं। जैसे नील-लेश्या वाले, उसी प्रकार यावत् पद्म-लेश्या वाले, शुक्ल-लेश्या वाले की वक्तव्यता। इतना विशेष है-लेश्या-स्थान की विशुद्धि होते-होते शुक्ल-लेश्या में परिणत होते हैं, परिणत होकर शुक्ल-लेश्या वाले देवों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् उपपन्न होते हैं। ३९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ४९६
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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