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________________ भगवती सूत्र श. १३ : उ. १ : सू. १५-२२ सम्यग्-दृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? पूर्ववत्। १६. भंते! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय-विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्-दृष्टि नैरयिकों का विरह होता है? मिथ्या-दृष्टि नैरयिकों का विरह होता है? सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नैरयिकों का विरह होता है? गौतम! सम्यग्-दृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, मिथ्या-दृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नैरयिकों का अविरह अथवा विरह दोनों होते हैं। इसी प्रकार असंख्येय-विस्तृत नरकों में तीन गमक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार शर्करा-प्रभा की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत् तमा की वक्तव्यता। १७. भंते! अधःसप्तमी के पांच अनुत्तर यावत् संख्येय-विस्तृत नरकों में सम्यग्-दृष्टि नैरयिकों की पृच्छा। गौतम! सम्यग्-दृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते, मिथ्या-दृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते। इसी प्रकार उद्वर्तन की वक्तव्यता। अविरह की रत्न-प्रभा की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार असंख्येय-विस्तृत नरकों में भी तीन गमक वक्तव्य हैं। १८. भंते! वे कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या यावत् शुक्ल-लेश्या वाले होकर कृष्ण-लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं? हां गौतम! कृष्ण-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। १९. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कृष्ण-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं? गौतम! लेश्या-स्थानों में संक्लेश होते-होते वे कृष्ण-लेश्या में परिणत होते हैं, परिणत होकर कृष्ण-लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कृष्ण-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २०. भंते! वे कृष्ण-लेश्या यावत् शुक्ल-लेश्या वाले होकर नील-लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं? हां गौतम ! नील-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २१. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-नील-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं? गौतम! लेश्या-स्थान में संक्लेश होते-होते अथवा विशुद्धि होते होते नील-लेश्या में परिणत होते हैं। परिणत होकर नील-लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है नील-लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २२. भंते! वे कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या यावत् शुक्ल-लेश्या वाले होकर कापोत-लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं? गौतम! इस प्रकार नोल-लेश्या वाले नैरयिकों की भांति कापोत-लेश्या वाले नैरयिक भी ४९३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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