SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १२ : उ. ८,९ : सू. १६०-१६८ पौषधोपवास से रहित कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा - पृथ्वी में उत्कृष्टतः सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं ? श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैं- उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य है। १६१. भंते ! ढंक (द्रोण काक); कंक (सफेद चील), विलक (पीलक), मद्गुक (जल - काक) और मोर- ये शील- रहित, व्रत-रहित, गुण-रहित, मर्यादा -रहित, प्रत्याख्यान और पौषधोपावास से रहित कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा - पृथ्वी में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप उपपन्न होते हैं ? श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैं- उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य है । वह ऐसा ही है, ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे । १६२. भंते! वह ऐसा हो है। भंते! नौवां उद्देशक पंचविध-देव-पद १६३. भंते ! देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! देव पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- भव्य - द्रव्य - देव, नर-देव, धर्म-देव, देवातिदेव और भाव-देव । १६४. भंते ! भव्य द्रव्य देव भव्य द्रव्य देव - यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो भव्य पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक अथवा मनुष्य मृत्यु के पश्चात् देवों में उपपन्न होने वाले हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-भव्य- द्रव्य देव भव्य - द्रव्य- देव । १६५. भंते! नर - देव नर - देव - यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो ये चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उपपन्न समस्त रत्नों में प्रधान चक्र वाले, नौ निधि के अधिपति, समृद्ध कोश वाले हैं, बत्तीस हजार श्रेष्ठ राजा उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं, समुद्र की प्रवर मेखला के अधिपति और मनुष्यों के इन्द्र हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है - नर - देव नर - देव । १६६. भंते ! धर्म-देव धर्म-देव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो ये अनगार भगवन्त विवेकपूर्वक चलते हैं यावत् ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखते हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है - धर्म - देव धर्म - देव । १६७. भंते! देवातिदेव देवातिदेव - यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो ये अर्हत् भगवान् उत्पन्न - ज्ञान- दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है- देवातिदेव देवातिदेव । १६८. भंते ! भाव-देव भाव-देव - यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? गौतम ! जो ये भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिष्क-, वैमानिक - देव देव गति - नाम - गोत्र कर्मों ४७६
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy